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उपासकाध्ययन
तत्कालीन स्थितिको देखकर एक ओर धार्मिकोंको अन्य समाजोंके प्रभावसे बचाना आवश्यक है दूसरी ओर कुछ ऐसे लौकिक तत्वोंको भी अपने में समाविष्ट कर लेना आवश्यक होता है जो धर्म-सम्मत नहीं होते, किन्तु जिनका लौकिक स्थितिपर विशेष प्रभाव पड़ता देखा जाता है और जिनके बिना बहुसंख्यक समाजके मध्य में रहना कठिन होता है। यदि समर्थ जैनाचार्योंने, जिनमें जिनसेनका नाम प्रमुख है, ऐसा न किया होता तो भारतमें गुप्त साम्राज्य काल में बढ़ते हुए ब्राह्मण धर्मके प्रवाहवश बौद्धधर्मकी तरह सम्भवतया जैनधर्मके भी पर भारतसे उखड़ जाते । ऐसे कठिन समय में प्रवाहके वेगसे सुपरिचित धर्महितचिन्तकोंने अपने मूलतत्त्वोंको पकड़े रहकर ब्राह्मण धर्मकी उन सामाजिक आचारविषयक प्रवृत्तियोंको अपनाना उचित समझा जिनको अपनाने से अपने धर्मको भी क्षति नहीं पहुँचती थी और आया हुआ संकट भी टल जाता था । सोमदेवके उपासका ध्ययनमें ऐसे अनेक प्रसंग हैं और उनसे समाधान भी ।
चौंतीसवे कल्पमें सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हुए सोमदेवने देवपूजाके प्रसंगसे गृहस्थोंके लिए जो विधियाँ बतलायी हैं उनमें कुछ ऐसो विधियाँ भी हैं जो ब्राह्मणधर्म से सम्बद्ध हैं। जैसे बाहर से आकर आचमन किये बिना घरमें प्रवेश करनेका निषेध और भोजनकी विशुद्धिके लिए होम और भूतबलिका विधान इत्यादि । इतना होने पर भी इसीके साथ सोमदेवने यह भी लिख दिया है कि इनके करनेसे धर्म नहीं होता और न करनेसे अधर्म भी नहीं ।
स्मृति ग्रन्थोंमें भोजनसे पहले होम और बलिका विधान है। नाम होम है और भोजनसे पहले ग्रास निकालकर उसे देवता वगैरह के कहते हैं । वैश्वदेवके बिना भोजन करनेसे हिन्दू स्मृतिकारोंके अनुसार आचमनका विधान भी स्मृतियोंमें वर्णित है ( मनु० २-६० ) ।
सोमदेवने स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि गृहस्थके दो धर्म होते हैं एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकानुसार चलता है और पारलौकिक धर्म आगमानुसार ।
भोज्य अन्नको अग्निमें क्षेपण करनेका उद्देशसे देना बलि है । इनको वैश्वदेव नरक में जाना पड़ता है। इसी तरह
fre लौकिक विधिको अपनाया जाये और किसको न अपनाया जाये इसके निर्णयके लिए सोमदेवजीने यह कसौटी बतायी है कि 'जिससे सम्यक्त्वकी हानि न होवे और व्रतोंमें दूषण न लगे वह लौकिक विधि सभी जैनोंके लिए मान्य है ।'
सोमदेवकी बतायी इस कसोटीपर प्रत्येक लौकिक विधिको कसनेकी क्षमता श्रावकमें होनी चाहिए । ऐसे प्रसंगोंसे अनर्थकी पूरी सम्भावना रहती है । रूढ़िचुस्त लोग लौकिक विधिको भी धर्मका ही अंग समझ बैठते हैं । और इस प्रकार के शास्त्रवचन प्रमाण रूपमें उपस्थित किये जाने लगते हैं ।
वर्ण व्यवस्था
जैन साहित्य में वर्णव्यवस्थाका वर्णन आता है, किन्तु वह स्मृति ग्रन्थोंमें प्रतिपादित वर्णन से भिन्न है । मनुस्मृति आदिमें जो ब्राह्मण वर्णकी सर्वोत्कृष्टता स्थापित की गयी है सभी जैनाचार्योंने उसका एक स्वरसे विरोध किया है तथा वर्णव्यवस्था में कर्मको प्रधानता दी है। वरांगचरितमें ( ७वीं शती अनुमानित ) जटासिंह - नन्दिने लिखा है,
दया, रक्षा, कृषि और शिल्पके कर्मके भेदसे शिष्टपुरुष चार वर्ण कहते हैं, अन्य प्रकारसे चार वर्ण नहीं हो सकते।
१. श्लो० ४७१ । बैश्वदेवं तु यो
५. सो० उपा० श्लो० ४७६ । ६. वही, श्लो० ४८० ।
२. श्लो० ४७४ । ३. " एतद्विधिर्न धर्माय नाधर्माय तदक्रियाः ।" ४. 'अकृत्वा ऽनापदि द्विजः । स मूढो नरकं याति ।” स्मृतिचन्द्रिका पृ० २१३ में उष्टत ।
७. क्रिया विशेषाद् ब्यवहारमात्रायामिरक्षाकृषि शिल्पभेदात् ।
शिष्टाश्व वर्णांश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥११॥ - २५वाँ सर्ग,