Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाषा
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इच्छाद्वेषाभ्यामपरेषां ॥५॥ तरा० ॥ * मोहका अर्थ अज्ञान है। जो पुरुष मोहरहित हैं उनके मिथ्या श्रद्धान नहीं होता । वे द्रव्य गुण
आदि छह पदार्थों के जानकार और वैराग्यके धारक होते हैं। जिस तरह दीपकके बुझ जानेपर प्रकाश भी नष्ट हो जाता है क्योंकि यह नियम है-जो जिसकी सहायतासे उत्पन्न होता है वह अपने सहायीके है
नष्ट हो जानेपर नष्ट हो ही जाता है। प्रकाश दीपककी सहायतासे उत्पन्न होता है इसलिये दीपकके है। Pil बुझ जानेपर प्रकाशका नष्ट होना ठीक ही है उसीतरह यथार्थज्ञानसे सुख दुःख इच्छा और द्वेष नष्ट हो
जाते हैं । इच्छा आदिका नाश हो जानेपर धर्म अधर्म भी नष्ट हो जाते हैं। धर्म अधर्मके नाशसे संयोगका अभाव हो जाता है। इहांपर संयोगशब्दसे जीवन नामके संयोगका ग्रहण है एवं धर्म और अधर्मी
के द्वारा शरीरसहित आत्माका जो मनके साथ संबंध रहना है वह जीवन है अर्थात् धर्म और अधर्मसे हूँ| आत्मा और शरीर आदि सर्वथा जुदे २ हो जाते हैं एवं संयोगके नाशसे धर्म अधर्मका नाश हो जाता है। है है इसप्रकार धर्म और अधर्मके नाशसे मोक्षकी प्राप्ति होती है तथा जब तक धर्म अधर्म मौजूद रहते हैं |
तब तक उनसे बंध होतारहेता है क्योंकि अधर्म नामके अदृष्टसे अज्ञान, अज्ञानसे मोह, मोहसे इच्छा द्वेष, उनसे धर्म अधर्म और धर्म अधर्मसे बंध और बंधसे संसारकी उत्पचि होती है इसप्रकार यह वात
सिद्ध हो चुकी कि-धर्म अधर्मके नाशसे संयोगका नाश और आगे होनेवाले शरीरोंका सर्वथा न उत्पन्न का होना ही मोक्ष है। धर्म अधर्मका नाशअनागतानुत्पचि और संचितनिरोध दो तरहसे होता है । भविष्यतका कालमें उत्पन्न न होना अनागतानुत्पचि है और विद्यमानका नष्ट हो जाना संचितनिरोध है । अधर्मको द उत्पन्न करनेवाले शरीर इंद्रिय और मन हैं जिस समय इनका नाश हो जाता है उस समय शरीर इंद्रिय
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