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३-खेल
४-नाक का मेल ५-वमन
६-पित्त ७-रुधिर
८--वीर्य ९-शुक्रपुद्गल का परिसाट १०-मृतक ११ -स्त्री-पुरुष का संयोग
१२-नगर का नाल १३-कान का मेल
१४- सर्व अशुचिस्थान मनःपर्यवज्ञान- अवधिज्ञान के बिना भी हो सकता है। जिस मनुष्य के मन:पर्यवज्ञान है उसके अवधिज्ञान की भजना है। कहा है
"छण्हं संघयणाणं, संघयणेणावि अन्नतरगेण । रहिआ हवंति देवा, नेवट्ठिसिराइ तद्देहे ॥"
-प्रकरण रत्नावलि गा १९३ देवों के छः संहनन में से कोई भी संहनन नहीं होता है क्योंकि उनके शरीर में अस्थि और शिरा ( नस-रग-नाड़ी) नहीं होती है ।
नारकी के जीवों के छः संहनन में से कोई संहनन नहीं है। अन्य ( मजबूत ) पुद्गल स्कंध की तरह उनके शरीर को बांध रखा है। जो पुद्गल अनिष्ट और अमनोज्ञ होते हैं उनके वे पुद्गल आहार रूप में परिणत होते हैं। वे अनंत प्रदेशी स्कंध पुद्गल है। कृष्णवर्ण के पुद्गलों का आहार करते हैं ।
तंदुलमत्स्य-जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रय का एक भेद है। अनंत जीवों के साधारण शरीर को निगोद कहते हैं। एक आकाश प्रदेश में अनंत जीवों के असंख्यातअसंख्यात आत्मप्रदेश होते हैं ।२ परन्तु एक आकाश प्रदेश पर एक जीव के समूचे प्रदेश नहीं है। एक जीव आकाश के असंख्यात प्रदेश को अवगाहित कर रहता है । निगोद की अवगाहना एक समान होती है ।
प्रज्ञापना में कायस्थिति का विवेचन साव्याहारिक राशि की अपेक्षा है । असंख्यात निगोद का एक गोला होता है। सूक्ष्म निगोद के समूह से उत्पन्न गोले होते हैं तथा बादर निगोद के अवगाहित की अपेक्षा गोले होते हैं। निगोद के गोले असंख्यात है, एक एक गोले में असंख्यात निगोद है व एक निगोद में अनत जीव है । १. जीवाभिगम संग्रहणी। २. निगोद प्रिंशिका गा १६ । ३. प्रज्ञापना पद १८ ।
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