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अ०१३ / प्र०१
भगवती-आराधना / ११ ___ "अपवादलिङ्गमुपगतः किमु न शुद्धयत्येवेत्याशङ्कायां तस्यापि शुद्धिरनेन क्रमेण भवतीत्याचष्टे
अववादियलिंगकदो विसयासत्तिं अगूहमाणो य।
णिंदण-गरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो॥ ८६॥ भ.आ.। अनुवाद-"क्या अपवादलिंगधारी शुद्ध (कर्ममल से मुक्त) होता ही नहीं है? इस शंका का समाधान करने के लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि उसकी शुद्धि भी इस क्रम से होती है-अपवादलिंग में स्थित मनुष्य भी यदि निज शक्ति को न छिपाकर अपनी निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग कर देता है, तो वह शुद्ध हो सकता है।"
अपराजित सूरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए लिखते हैं
"अपवादलिङ्गस्थोऽपि --- कर्ममलापायेन शुद्ध्यति। कीदृक् सन्? यः स्वां शक्तिम् अगूहमानः सन् परिग्रहं परित्यजन् योगत्रयेण। सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इति अन्तःसन्तापो निन्दा। गर्दा परेषाम् एवं कथनम्। ताभ्यां युक्तो निन्दागाँक्रियापरिणत इति यावत्। एवमचेलता व्यावर्णितगुणा मूलतया गृहीता।" (पृ. १२२)।
___ अनुवाद-"अपवादलिंग में स्थित पुरुष भी कर्ममल को दूर करके शुद्ध होता है। किस रीति से? अपनी शक्ति को न छिपाते हुए मन-वचन-काय से परिग्रह का त्याग करने पर। सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों से डरकर वस्त्रपात्रादि परिग्रह ग्रहण किया, इस प्रकार मन में सन्ताप करना निन्दा है। दूसरों से ऐसा कहना गर्दा है। इन दोनों से युक्त होने पर अर्थात् अपनी निन्दागर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग करने पर शुद्ध होता है।"
इस गाथा और इसकी टीका से स्पष्ट है कि शिवार्य ने मोक्ष के लिए त्यागे जाने योग्य वस्त्रपात्रादि-परिग्रहयुक्त लिंग को ही अपवादलिंग नाम दिया है। यदि स्थविरकल्पी साधु के सचेललिंग को अपवादलिंग कहा जाता, तो उसकी शुद्धि के लिए वस्त्रपात्रादिपरिग्रह का त्याग आवश्यक न बतलाया जाता, वस्त्रपात्र धारण किये हुए ही उसकी शुद्धि (मुक्ति) स्वीकार कर ली जाती।
१.२.४. श्राविका का लिंग अपवादलिंग-भगवती-आराधना में श्रावक के लिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि इसी ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथा में आर्यिका के एकवस्त्रात्मक लिंग को उत्सर्गलिंग और श्राविका के लिंग को अपवादलिंग कहा गया है
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