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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
उपयोग ही आत्मा को कर्म-पुद्गल आदि अजीवों से पृथक् करता है । 'उपयोग’ लक्षण जीव के अतिरिक्त किसी भी अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता। प्रथम अध्याय में जब जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष - इन सात तत्त्वों की गणना की गई तब पूज्यपाद देवनन्दी ने जीव का लक्षण चेतना करते हुए कहा है- 'तत्र चेतनालक्षणो जीवः।” जीव का यह लक्षण संसारी एवं सिद्ध सभी जीवों में घटित होता है। प्राणधारण करने से जो जीता है वह जीव है, यह लक्षण संसारी जीवों में तो घटित हो जाता है, किन्तु सिद्धों में घटित नहीं होता। संसारी प्राणियों में भी विग्रहगति में यह लक्षण घटित नहीं होता। अतः इस लक्षण में अव्याप्ति दोष है। इसलिए चेतना अथवा उपयोग ही ऐसा लक्षण है जो सिद्ध एवं संसारी सब जीवों में पूर्णतः घटित होता है एवं उसमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव दोष नहीं आते हैं।'
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जीव के लक्षण ‘उपयोग' में ज्ञानोपयोग के आठ एवं दर्शनोपयोग के चार प्रकार होते हैं। ज्ञानोपयोग के आठ भेदों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान तथा विभङ्गज्ञान ये तीन अज्ञान परिगणित होते हैं तथा दर्शनोपयोग में चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण एवं केवलदर्शनावरण की गणना होती है। इनमें केवलज्ञान एवं केवलदर्शन क्षायिक होते हैं जो क्रमशः ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के क्षय से प्रकट होते हैं। शेष सभी ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन क्षायोपशमिक हैं, जो ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के क्षयोपशम से प्रकट होते हैं। मिथ्यात्व की अवस्था में जो ज्ञान 'अज्ञान' कहलाता है वही सम्यक्त्व की अवस्था में ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। सर्वार्थसिद्धिकार ने छद्मस्थ जीवों में ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग का क्रमभाव स्वीकार किया है तथा निरावरण केवलियों एवं सिद्धों में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को युगपद् स्वीकार किया है। '
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प्रश्न यह होता है कि जब छद्मस्थ जीव में क्रमभाव के कारण एक समय में
* जब लक्षण लक्षणीय वस्तु में पूरा न घटित हो तो उसे अव्याप्ति दोष, लक्षणीय से अन्य वस्तु में भी चला जाए तो उसे अतिव्याप्ति दोष तथा लक्षणीय वस्तु में कतई घटित न हो तो उसे असम्भव दोष कहते हैं।