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प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
जैन जीवन शैली का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है- समाधिमरण। जैनधर्म में जीने की कला का भी निरूपण हुआ है तो शान्ति एवं समाधिभावों के साथ मृत्यु की कला का भी। साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका - उनका एक मनोरथ होता है कि वे अन्तिम समय में संलेखना* - संथारा करके समाधिमरण का वरण करें। अस्पताल में ऑक्सीजन की नलियों में उलझकर मरने की अपेक्षा समाधिभावों में मृत्यु के लिए पण्डितमरण का वरण श्रेष्ठ है। आचारांगसूत्र, समवायांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण अथवा पंडितमरण की चर्चा संप्राप्त होती है, किन्तु प्रकीर्णक साहित्य का अधिकांश भाग तो समाधिमरण की चर्चा से ही ओतप्रोत है। आराधना प्रकरण, आराधना पताका, पर्यन्ताराधना के साथ महाप्रत्याख्यान आदि अनेक प्रकीर्णक ग्रन्थों में समाधिमरण अथवा पंडितमरण की विशद चर्चा प्राप्त होती है। प्रस्तुत आलेख में प्रकीर्णक-साहित्य को आधार बनाकर समाधिमरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की जा रही है। दिगम्बर/यापनीय परम्परा का ग्रन्थ भगवती आराधना भी समाधिमरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
आध्यात्मिक साधना से संपृक्त प्रकीर्णक साहित्य में समाधिमरण प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है। महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान (वीरभद्र), संस्तारक, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा(वीरभद्र), मरणविभक्ति,मरणविशुद्धि,मरण-समाधि और आराधनापताका आदि अनेक आराधनाएं समाधिमरण का ही प्रतिपादन करती हैं। समाधिमरण से सम्बद्ध आठ प्रकीर्णकों को संकलित कर उसे मरणविभक्ति या मरणसमाधि नाम दिया गया है। इस संकलन में जो प्रकीर्णक संगृहीत हैं, वे हैं- मरणविभक्ति, मरणविशुद्धि, मरणसमाधि, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना प्रकीर्णक । ये समस्त प्रकीर्णक समाधिपूर्वक मरण करने की प्रक्रिया एवं उसके महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। एक प्रकीर्णक है-चन्द्रवेध्यक। इस प्रकीर्णक में विनय, आचार्य, शिष्य, विनयनिग्रह, ज्ञान और चारित्र गुणों का विवेचन करने के साथ
* श्वेताम्बर साहित्य में प्रायः 'संलेखना' शब्द प्राप्त होता है तथा दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में 'सल्लेखना' शब्द दृग्गोचर होता है।