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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
भांति अजीव से सम्बद्ध जीव को भी द्रव्यात्मा स्वीकार किया गया है । सकषाय जीवों के कषायात्मा, सयोगियों के योगात्मा, समस्त जीवों के उपयोग आत्मा, सम्यग्दृष्टि के ज्ञानात्मा, सब जीवों के दर्शनात्मा, विरत जीवों के चारित्रात्मा तथा समस्त संसारी जीवों के वीर्यात्मा कही गई है।
अष्ट मद- जाति, कुल रूप, बल, लाभ, बुद्धि, वाल्लभ्य और श्रुत मदों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इन मदों के कारण विवेकहीन हुए मनुष्य इहलोक
और परलोक में हितकारी अर्थ को भी नहीं देखते हैं। प्रशमरतिप्रकरण में इन सभी मदों को त्यागने की प्रेरणा की गई है। उदाहरण के लिए कुलमद को त्यागने की प्रेरणा करते हुए कहा गया है कि जिसका शील दूषित है, उसको कुलमद करने से क्या प्रयोजन है ? और जो अपने गुणों से अलंकृत एवं शीलवान है उसको भी कुल का मद करने से क्या प्रयोजन है ? इन आठ प्रकार के मदस्थानों में निश्चय से कोई गुण नहीं है, केवल अपने हृदय का उन्माद और संसार की वृद्धि है । यह भी कहा गया है कि जाति आदि के मद से उन्मत्त मनुष्य पिशाच की भाँति यहाँ पर भी दुःखी होता है और परलोक में भी जाति आदि की हीनता को प्राप्त करता है। आगम एवं कर्मसिद्धान्त में अष्टविध मद को नीच गोत्र कर्म के बन्धन का कारण निरूपित किया गया है । उमास्वाति ने कहा है कि समस्त मदों के मूल का नाश करने के लिए अपने गुणों के गर्व और पर-निन्दा को छोड़ देना चाहिए । जो दूसरों का तिरस्कार एवं उनकी निन्दा करता है तथा अपनी प्रशंसा करता है वह अनेक भवों में भोगने योग्य नीच गोत्र का बन्ध करता है।
धर्मकथा- वैराग्य मार्ग में स्थिरता के लिए प्रवचन-भक्ति, शास्त्र-सम्पद् में उत्साह और संसार से विरक्त जनों के साथ सम्पर्क के अतिरिक्त धर्मकथा भी वैराग्य की स्थिरता के लिए आवश्यक है। धर्मकथा के चार प्रकार प्रतिपादित हैं1. आक्षेपणी 2. विक्षेपणी 3. संवेदनी और 4. निर्वेदनी । जो कथा जीवों को धर्म की
ओर अभिमुख करने वाली है वह आक्षेपणी धर्मकथा है तथा जो धर्मकथा कामभोगों से विमुख करती है वह विक्षेपणी धर्मकथा है । जिस कथा से संसार का सम्यग्बोध हो एवं उसमें दुःख का अनुभव हो उसे संवेदनी तथा कामभोग से वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा निर्वेदनी कहलाती है। ये चारों कथाएँ तो अपनाने योग्य हैं, किन्तु