Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 457
________________ जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन : एक तुलनात्मक दृष्टि 439 स्मृति है। सम्यक् स्मृति का साधक आत्मदीप, आत्मशरण एवं अनन्यशरण होकर विहरता है। तृष्णा एवं उपादान से विरति में सम्यक् स्मृति सहायक है। कुशल चित्त का एकाग्र होना समाधि है। सम्यक् समाधि ध्यान के चार चरणों में उदित होती है। वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता से युक्त चित्त ध्यान की प्रथम स्थिति है। प्रीति, सुख एवं एकाग्रता से युक्त चित्त ध्यान की द्वितीय स्थिति है। सुख, उपेक्षा, स्मृति एवं एकाग्रता से युक्त चित्त ध्यान की तृतीय स्थिति है। चतुर्थ ध्यान में उपेक्षा, स्मृति एवं एकाग्रता रहती है। इस चतुर्थ ध्यान की अवस्था ही समाधि है। यह अष्टाङ्गिक मार्ग एक प्रकार से चतुर्थ आर्यसत्य का ही विस्तृत निरूपण है। जैनदर्शन के अनुसार विचार करें तो सम्यक्दृष्टि को सम्यक्दर्शन के अन्तर्गत एवं सम्यक् संकल्प को सम्यक्ज्ञान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। शेष सम्यक्वाचा, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक्आजीव, सम्यक्व्यायाम, सम्यकस्मृति एवं सम्यक्समाधि को सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप के अन्तर्गत सन्निविष्ट किया जा सकता है । सम्यक् समाधि का जैनदर्शन में प्रतिपादित तप-भेद ध्यान के साथ साम्य है। एक प्रकार से आष्टांगिक मार्ग निर्वाण के मार्ग को विस्तार से प्रस्तुत करता है तथा त्रिरत्न इस मार्ग का संक्षेप में प्रतिपादन करता है। बौद्ध परम्परा में सम्प्रति 'विपश्यना' ध्यानसाधना का बोलबाला है। सत्यनारायण गोयनका द्वारा देश-विदेश में इस ध्यान-साधना का व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया है। जैनागम आचारांगसत्र में 'लोगविपस्सी' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो यह संकेत करता है कि विपश्यी या विपश्यना शब्द जैन परम्परा में भी प्रचलित रहा है तथा ध्यान की यह पद्धति सम्भव है जैन परम्परा में भी रही हो। बौद्ध ग्रन्थों में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग अधिक हुआ है, विपश्यना का नहीं। बौद्धदर्शन में प्रमाण दो प्रकार का मान्य है- 1. प्रत्यक्ष एवं 2. अनुमान । प्रत्यक्ष प्रमाण निर्विकल्प ज्ञानात्मक होता है तथा अनुमान प्रमाण सविकल्प ज्ञानात्मक । प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण अर्थ होता है तथा अनुमान प्रमाण का विषय सामान्य लक्षण प्रमेय होता है । इस प्रकार बौद्धदर्शन में प्रमाणों के पृथक्-पृथक् प्रमेय स्वीकार किए गए हैं। जबकि जैनदर्शन में सभी प्रमाणों के प्रमेय का स्वरूप

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