Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 478
________________ 460 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन भाषा बोलता है, व्यर्थ प्रलाप करता है, लोभी होता है, हिंसा में चित्त लगाये रखता है और मिथ्यादृष्टि होता है । क्षत्रिय का ऐसा होना उसके अकुशल धर्मों को बताता है। हिंसक होना आदि अकुशल धर्म सावध हैं, समाज में निन्दनीय हैं एवं असेवनीय हैं। इनका सेवन करने वाला आर्य नहीं होता । वह कृष्ण एवं कृष्ण फल वाला होता है तथा विज्ञ पुरुषों द्वारा निन्दित होता है । धम्मपद में भी आर्य एवं अनार्य की भेदक गाथा आई है न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं, अरियोति पवुच्चति ।। बुद्ध की दृष्टि में आर्य वह नहीं होता, जो प्राणियों की हिंसा करता है, अपितु अहिंसक होना ही आर्य का लक्षण है । अग्गञसुत्त हिंसा के साथ अदत्तादान, व्यभिचार, झूठ, चुगली आदि दोषों को भी अनार्य के लक्षण में सम्मिलित करता है। अग्गज्ञसुत्त में ऐसे अकुशल धर्मों से युक्त क्षत्रिय को ही नहीं, ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र को भी निन्दनीय बताया गया है। उन्हें अनार्य कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि बुद्ध ने सभी वर्गों की आचरणगत निर्मलता पर बल प्रदान किया है तथा नैतिक आचरण के आधार पर ही इनको श्रेष्ठ या हीन स्वीकार किया है। उनके अनुसार धर्म ही श्रेष्ठ है- धम्मो हि सेट्ठो जनेतस्मिं । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि क्षत्रिय का कार्य युद्ध करना है, वह हिंसा से कैसे बच सकता है ? उत्तर में कहना होगा कि बुद्ध क्षत्रिय के उस कार्य में व्यवधान उत्पन्न नहीं करते, किन्तु व्यर्थ में प्राणातिपात से तो क्षत्रिय को भी बचना ही चाहिए । कलिंग युद्ध की विभीषका से द्रवित होकर तो अशोक ने आगे युद्ध न करने का संकल्प ही ले लिया था। __बुद्ध की दृष्टि से उच्चकुलीन होने से कोई श्रेयस्कर अथवा अश्रेयस्कर नहीं होता । उदारवर्ण होना और उदारभोगों या धन-धान्य का होना श्रेयस्करता या अश्रेयस्करता का सूचक नहीं है, क्योंकि उच्चकुलीन भी यदि हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि दोषों से युक्त होता है तो वह अश्रेयस्कर होता है तथा यदि वह इन अकुशल धर्मों से रहित होता है तो वह श्रेयस्कर है। इसी प्रकार उच्च वर्ण वाला एवं उदार भोगों से युक्त व्यक्ति भी इन बुराइयों से युक्त होता है तो वह अश्रेयस्कर होता है तथा इनसे रहित होने पर श्रेयस्कर होता है।

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