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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
उत्तराध्यनसूत्र में धर्म को ह्रद, ब्रह्म को शान्तितीर्थ, अपनी निर्दोष एवं प्रसन्न लेश्या को जल का रूपक प्रदान कर उसमें कृत स्नान को विमलता, विशुद्धता एवं शीतलता का कारण तथा दोष -त्याग का साधन निरूपित किया गया है । " जैन श्रमण स्नान एवं विभूषा के पूर्णतः त्यागी होते हैं। गृहस्थ के लिए स्नान एवं विभूषा का त्याग नहीं है, किन्तु वह भी चाहे तो परिमाण कर सकता है।
जैनागमों का नैगमिक निरूपण से एक यह भी भेद है कि जैनागमों में प्राणिमात्र के प्रति आत्मवद्भावपूर्वक संवेदनशीलता को गहरा करने का प्रयत्न किया गया है । वेदों में पृथिवी, अप्, अग्नि, वायु एवं वनस्पति की स्तुति में अनेक सूक्त हैं तथा इन्हें देवता रूप में प्रतिष्ठित कर इनके प्रति आदरभाव स्थापित किया गया है, जो प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से महत्त्व रखता है। जैनागमों में इन्हें सत्य के धरातल पर व्यावहारिक रूप से एकेन्द्रिय जीवों के रूप में प्रतिपादित कर इनकी हिंसा से बचने का सीधा-सीधा उपदेश दिया गया है । आचारांगसूत्र में पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों की हिंसा को अहित एवं अबोधि का सूचक माना गया है' तथा प्रशंसा, आदर एवं पूजा के लिए भी हिंसा को उचित नहीं माना गया । '
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जैनागम पशुबलि को तो अनुचित मानते ही हैं, वनस्पति के फूल - पत्तों को तोड़ने में भी हिंसा का भाव प्रतिपादित करते हैं । आचारांगसूत्र में वनस्पति की मनुष्य से तुलना करते हुए उसमें जीवत्व की सिद्धि की गई है । " वेदों में हिंसा के त्याग का उपदेश अवश्य है, किन्तु इतने सूक्ष्म स्तर पर नहीं है । जैनागम तो स्वयं हिंसा करने, दूसरों से कराने तथा करने का अनुमोदन करने को भी त्याज्य निरूपित करते हैं ।
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इस प्रकार निगम एवं जैन आगमों में दृष्टि का भेद है । दोनों में सम्बन्ध ढूँढना एक कठिन कार्य है तथा यह सीमित क्षेत्र में ही लागू हो सकता है । दोनों में अन्तः सम्बन्ध का एक कारण यह हो सकता है कि निगम एवं जैन आगम दोनों का जन्म भारत में हुआ । जिस धरा पर वेदों का पाठ होता रहा, वेदों के आधार पर यज्ञ एवं समाज-व्यवस्था का निरूपण हुआ, उसी धरा पर जैनधर्म ने अपने प्राण धारण किए । इस कारण दोनों में वैचारिक सम्बन्ध अवश्य रहा होगा ।