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जैन आगम - परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तः सम्बन्ध
शती ई.) के समयसार आदि ग्रन्थ तथा तिलोयपण्णत्ति आदि कुछ ग्रन्थ भी आगमवत् स्वीकार्य हैं । परन्तु सम्प्रति 'जैनागम' कहने पर प्रायः श्वेताम्बर जैनागमों को ही गृहीत किया जाता है
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आगमों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाएँ एवं टब्बे के रूप में व्याख्या-साहित्य भी समुपलब्ध है । जैनागम-व - वाङ्मय के संवर्द्धन में भद्रबाहु, उमास्वाति, पूज्यपाद देवनन्दी, सिद्धसेनसूरि, समन्तभद्र, भट्ट अकलङ्क, जिनभद्रगणि, जिनदासगणि महत्तर, हरिभद्रसूरि, मलयगिरि, अभयदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि आदि अनेक आचार्यों का महान् योगदान रहा है । दिगम्बर परम्परा भले ही श्वेताम्बर आगमों को मान्य न करती हो, किन्तु स्त्रीमुक्ति, केवलि - भुक्ति सदृश कतिपय बिन्दुओं को छोड़कर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धान्तगत विशेष मतभेद नहीं है। " जो भेद है वह प्रायः आचारगत ही अधिक है ।
जैनागम एवं निगम : दो भिन्न धाराएँ
जैन परम्परा का निगमों से सीधा सम्बन्ध खोज पाना कठिन है, क्योंकि दोनों की भिन्न धाराएँ रही हैं । वेद जहाँ प्रवृत्तिप्रधान हैं वहाँ जैनागम निवृत्तिप्रधान हैं । लौकिक अभ्युदय को धर्म का लक्ष्य बनाना जैनागमों को अभीष्ट नहीं है । वेदों का अध्ययन करने पर विदित होता है कि वहाँ लौकिक अभिलाषाओं की पूर्ति एवं अभ्युदय को भी पदे पदे महत्त्व दिया गया है । वहाँ शतायु होने, सन्तान के बलिष्ठ होने, गायों के अधिक दूध देने, वनस्पति के प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होने आदि लौकिक अभ्युदय की भी कामनाएँ की गई हैं।' जैनागमों में इस प्रकार की कामनाओं को स्थान नही है । इनमें तो संयम, त्याग एवं तप का विशेष महत्त्व है । गृहस्थ के लिए पाँच अणुव्रतों (प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन - विरमण एवं परिग्रह - परिमाण) की तथा साधु-साध्वियों के लिए पंच महाव्रतों ( उपर्युक्त पाँचों के पूर्ण विरमणरूप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ) की साधना को सर्वोच्च स्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो वेदों में जैविक मूल्यों की भी प्रधानता है, जबकि जैनागमों में आध्यात्मिक मूल्यों को ही मुख्यता दी गई है । इस प्रकार निगम एवं जैन आगमों की दृष्टि में भेद है ।
जैनागम बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तःशुद्धि पर बल प्रदान करते हैं।