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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
ऊँ नमो अरहताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम् । ऊँ नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपरं वरम् ।। ऊँ नमो आयरियाणं अंगरक्षाऽतिशायिनी।
ऊँ नमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोर्दृढम् ।। नमस्कार मंत्र के पाँच पदों को भी कुछ लोग 'ऊँ' लगाकर उच्चारित करते हैं, यथा- 'ऊँ नमो अरहंताणं ।' 'ऊँ नमो सिद्धाणं ।' आदि यज्ञ का स्वरूप
जैनदर्शन के मूलस्वरूप में यज्ञ एवं हवन का कोई स्थान नहीं है । भारतीय परम्परा में जो यज्ञ प्रचलन में रहा है, वह जैनागमों को स्वीकार्य नहीं है । यज्ञ में पशुबलि के प्रति तो जैनागमों में विरोध के स्वर मुखरित हुए ही हैं, किन्तु यज्ञ के स्वरूप को भी आध्यात्मिक रूप में प्रस्तुत किया गया है । उत्तराध्ययन सूत्र के 'यज्ञीय' अध्ययन में जयघोष एवं विजयघोष की कथा आती है। ये दोनों प्राता थे। जयघोष जैन श्रमण बन गया था और विजयघोष पक्का वेदविद् ब्राह्मण था । विजयघोष ने वाराणसी के बाहर उद्यान में एक यज्ञ का आयोजन किया। अकस्मात् संयोग से वहाँ पर ही जयघोषमुनि मासिक उपवास के पारणक के अवसर पर भिक्षा के लिए आ गए। विजयघोष उन्हें अपने भ्राता के रूप में न पहचान सका तथा जैन श्रमण को भिक्षा देने का निषेध करते हुए कहा -“ हे भिक्षो! मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा । तुम अन्यत्र जाकर याचना करो। यह सर्वकामित अन्न उन्हीं को दिया जाएगा जो वेदज्ञ ब्राह्मण हैं, यज्ञार्थी हैं, ज्योतिषाङ्ग के वेत्ता हैं, धर्मशास्त्र के पारगामी हैं तथा जो अपनी और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं। जयघोष मुनि इस घटना से न तो रुष्ट हुए और न ही हर्षित हुए, किन्तु उन्होंने वेद, यज्ञ आदि के सही स्वरूप को जानने की प्रेरणा की
न वि जाणासि वेयमुहं, न वि जन्नाण जं मुहं।
नक्खत्ताण मुहं जं च, जं च धम्माण वा मुहं ।।” न तो तुम वेद के मुख को जानते हो, न यज्ञों के मुख को जानते हो, न नक्षत्रों के मुख को जानते हो और न धर्मों के मुख को जानते हो । जो अपनी आत्मा का एवं दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी तुम नहीं जानते हो । वह आगे कहता है- "वेदों में अग्निहोत्र की प्रधानता है तथा धर्मों में काश्यप महावीर का धर्म