Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 508
________________ अनेक लोगों की यह भ्रान्त धारणा है कि जैनदर्शन में कोई मौलिकता नहीं है, मात्र वैदिक दर्शनों के विचारों का ही इसमें समावेश कर लिया गया है। वस्तुतः यह आक्षेप उन लोगों का है जो जैनदर्शन की मौलिकता एवं व्यापक दृष्टि से अनभिज्ञ हैं। जैनदर्शन की मौलिकता तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा सभी स्तरों पर दृग्गोचर होती है। यदि जैनदर्शन के कतिपय पारिभाषिक शब्दों पर ही दृष्टिपात किया जाए तो भी इसकी मौलिकता का अनुमान सहज हो जाता है। उदाहरण के लिए लेश्या, गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान, दण्डक, औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समुद्घात, पर्याप्ति, संज्ञी-असंज्ञी, सम्मूर्च्छिम- जन्म, उपपात-जन्म, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, दर्शनमोहनीय, चारित्र-मोहनीय, ज्ञानावरणादि अष्टविध-कर्म, अपवर्त्य आयु, अनपवर्त्य आयु, विनसा परिणमन, प्रयोग- परिणमन, पल्योपम, सागरोपम, पुद्गल- परावर्तन, अस्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पर्याय, नय, निक्षेप, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद आदि ऐसे शताधिक शब्द हैं, जोमात्र जैनदर्शन में प्राप्त होते हैं, अन्यदर्शनों में नहीं। ये पारिभाषिक शब्द जैनदर्शन को मौलिक सिद्ध करने हेतु पर्याप्त हैं। प्राकृत भारती अकादमी 13-ए, गुरुनानक पथ, मेन मालवीय नगर, जयपुर - 302017 फोन : 0141-2524827, 2520230 E-mail: prabharati@gmail.com 978-93-81571-56-9

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