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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
सत्कर्म करने वाले को शुभ फल एवं पापकर्म करने वाले को अशुभ फल की प्राप्ति होती है ।" व्यक्ति का भीतरी भाव कैसा है तथा आचरण कैसा है, इस पर ही फल की प्राप्ति निर्भर है ।
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उत्तराध्ययनसूत्र के 12 वें अध्ययन में यज्ञ का प्रतीकात्मक स्वरूप निरूपित है, जहाँ तप को अग्नि, जीव को अग्निकुण्ड, मन, वचन एवं काया को कुडछी, शरीर को कण्डे, शुभाशुभ कर्म को समिधा, संयम को शान्तिपाठ एवं प्रशस्त चारित्र को हो कहा है। 22
उत्तराध्ययनसूत्र के 14 वें इषुकारीय अध्ययन में भृगु राजपुरोहित के पुत्र श्रमणदीक्षा अंगीकार करने के पूर्व अपने पिता से कहते हैं
वेया अहीया न भवंति ताणं । भुत्ता दिया निंति तमंतमेणं ।
जाया य पुत्ता न हवंति ताणं ।
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कोणाम ते, अणुमन्नेज्ज एयं ।। "
अधीत वेद शरणभूत नहीं होते, ब्राह्मणों को भोजन कराकर भी कोई तमस्तम नरक में जा सकते हैं, पत्नी और पुत्र कोई शरणभूत नहीं होते हैं, इसलिए हे पितृवर्य! आपके वचन का अनुमोदन नहीं किया जा सकता ।
उपर्युक्त कथन का तात्पर्य है कि व्यक्ति के सद्भाव एवं सदाचरण से ही मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है । जैनागमों का प्रतिपादन बाह्य क्रियाकाण्ड की अपेक्षा भावशुद्धि एवं आचरण शुद्धि को महत्त्व प्रदान करता है ।
वर्णव्यवस्था एवं ब्राह्मण का स्वरूप
जैनागम सभी मनुष्यों को समानता एवं स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान करते
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हैं । विभिन्न वर्गों एवं जातियों के आधार पर मनुष्य की उच्चता और निम्नता को महत्त्व न देकर वह सबके लिए मोक्ष के द्वार खुले रखता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कोई भी क्यों न हो, मोक्ष - प्राप्ति के लिए संयम अंगीकार कर सकता है, प्रव्रज्या का पथ अपना सकता है। बौद्ध एवं जैन दोनों श्रमणधर्मों में इस दृष्टि से समानता है । हरिकेशी चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे लोग भी जैनधर्म में दीक्षित होकर श्रमण बने । भगवान महावीर ने वर्ण, जाति एवं रंग के स्थान पर गुणों एवं साधना
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