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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
आदि शब्द वैदिक परम्परा के साथ जैन परम्परा का तादात्म्य प्रकट करते हैं, किन्तु पूज्यपाद ने इन शब्दों का प्रयोग जैन परम्परा के अनुसार अभिप्राय ग्रहण कर किया है। वहाँ सिद्ध अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, इसलिए अव्यय हैं, वे श्रेष्ठ आत्मा हैं इसलिए परात्मा हैं, वे अनन्तवीर्यवान् हैं इसलिए ईश्वर हैं। अरिहन्त कल्याणकारी हैं इसलिए शिव हैं, वे अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि गुणों के धारक हैं अतः धाता हैं, उनका स्वरूप व्यापनशील है, उनके आत्मप्रदेश सम्पूर्ण लोकव्यापी हो सकते हैं अतः वे विष्णु हैं, वे संसार के आवागमन से मुक्त हैं अतः अपने पूर्ण स्वरूप में स्थित होने से सकलात्मा हैं।
सिद्धसेनसूरि की वर्द्धमान द्वात्रिंशिका के निम्नांकित श्लोक नैगमिक परम्परा के साथ जैनों के अन्तः सम्बन्ध को द्योतित करते हैं
त्रिकाल-त्रिलोक-त्रिशक्ति-त्रिसन्ध्य
त्रिवर्ग-त्रिदेव-त्रिरत्नादिभावैः। यदुक्ता त्रिपद्येव विश्वानि वव्र,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ।।" समुत्पत्ति-विध्वंस-नित्यस्वरूपा
यदुत्था त्रिपद्येवं लोके विधित्वम् । हरत्वं हरित्वं प्रपेदे स्वभावैः,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ।" परमात्मा जिनेन्द्र की स्तुति में त्रिकाल, त्रिलोक, त्रिशक्ति, त्रिसन्ध्या, त्रिवर्ग, त्रिदेव, हर, हरि आदि शब्दों का प्रयोग नैगमिक परम्परा के साथ अन्तः सम्बन्ध को स्पष्ट करता है।
जैन परम्परा में रचित स्तोत्रों में प्रायः तीर्थङ्करों की स्तुति प्रमुख रही है । तीर्थङ्कर राग-द्वेष से पूर्णतः रहित होने के साथ स्त्री एवं शस्त्र से भी विरहित होते हैं। इसलिए भगवान महावीर की स्तुति में सिद्धसेनसूरि कहते हैं
न गौरी न गंगा न लक्ष्मीर्यदीयं,
वपुर्वा शिरो वाप्युरो वा जगाले। यमिच्छाविमुक्तं शिवश्रीस्तुभेजे,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ।।