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जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध
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पंचनमस्कृति दीपक में नमस्कार मंत्र से सम्बद्ध अनेक मन्त्र हैं, यथा- केवलिविद्या, अङ्गन्यास, अपराजिता विद्या, परमेष्ठिबीजमन्त्र आदि। __ मंत्रों का प्रयोग 6 कार्यों में होता रहा है- मारण, मोहन, उच्चाटन, आकर्षण, स्तम्भन और वशीकरण । इनमें से जैनाचार्यों ने प्रायः आकर्षण, स्तम्भन और वशीकरण से सम्बद्ध मन्त्रों की ही रचना की है, मारण मोहन और उच्चाटन से वे दूर ही रहे हैं । जैन परम्परा के मन्त्रों में 'ॐ' का प्रयोग तो हुआ ही है, विभिन्न मातृका पदों अथवा बीजाक्षरों का भी प्रयोग हुआ है, यथा- ही, श्री, क्लीं, क्रां, ब्लु आदि।
जैन परम्परा में प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में मन्त्रों की रचना हुई है। प्राकृत मन्त्रों में इष्टदेव के रूप में पंच परमेष्ठी या तीर्थकरों को उपास्य बनाया गया है । मन्त्रों की रचना के तीन प्रकार मिलते हैं, यथा- 1. एक वे मन्त्र जो मूलतः आध्यात्मिक हैं, जिनमें किसी प्रकार की लौकिक कामना की पूर्ति लक्ष्य नहीं हैं। इस प्रकार के मंत्रों में मुख्यतः नमस्कार मंत्र से सम्बद्ध मंत्र आते हैं। 2. दूसरे प्रकार के वे मंत्र हैं जिनका मूलस्वरूप तान्त्रिक परम्परा से गृहीत है, किन्तु वे जैन दृष्टिकोण से विकसित हैं, उदाहरणार्थ___ "ॐ' नमो अरिहो भगवओ अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसंघ धम्मतित्थपवयणस्स।"
“ॐ नमो भगवईए सुयदेवयाए संतिदेवयाए सव्वदेवयाणं दसण्हं दिसापालाणं पंचण्हं लोकपालाणं ठः ठः स्वाहा।"
3. तृतीय प्रकार में वे मन्त्र सम्मिलित हैं जो मूलतः तान्त्रिक परम्परा के हैं तथा जिन्हें जैनों ने केवल देवता आदि का नाम बदलकर अपना लिया है। उदाहरणार्थ
“ॐ नमो भगवति ! अम्बिके ! अम्बालिके ! यक्षिदेवी ! यूं यौं ब्लैं इस्वलीं ब्लूं हसौ र रं र रां रां नित्य मदनद्रवे मदनातुरे ! ही क्रों अमुकां दश्यावृष्टिं कुरु कुरु संवौषट् । ___ जैन वाङ्मय में मन्त्रों को विषय कर अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं, यथा- सिंहनन्दि द्वारा पंचनमस्कृतिदीपक, वज्रस्वामी द्वारा वर्धमानविद्या, मन्त्रराजरहस्य, सूरिमंत्र, मंगलम् आदि।