________________
482
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
सरस्वती की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, जिनमें मथुरा से प्राप्त मूर्ति को प्रथम शती का माना गया है। मथुरा के अतिरिक्त पल्लू-बीकानेर और लाडनूं जैन सरस्वती की प्रतिमाएँ भी अपने शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं।
जैनागमों में देवयोनि के देवों को चार प्रकार का माना गया है- भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । इनके फिर अनेक उप प्रकार हैं, किन्तु ये सब उपास्य देव नहीं हैं । उपासना की दृष्टि से यक्ष-यक्षियों एवं सरस्वती के अतिरिक्त क्षेत्रपालों, दिक्पालों, नवग्रहों, कामदेवों, नारदों और रुद्रों को स्थान मिला है। क्षेत्रपालों के रूप में भैरवों की उपासना आज भी प्रचलित है। नाकोड़ा भैरव उनमें से एक है।
निवृत्तिप्रधान जैनधर्म में यक्ष-यक्षियों एवं देव-देवियों की पूजा उपासना तन्त्रागमों अथवा वैदिक परम्परा का प्रभाव है। इसे कुछ अंशों में बौद्धों का प्रभाव भी माना जा सकता है, क्योंकि उनमें भी इस प्रकार के देव-देवियों एवं तंत्रों का विकास हो रहा था। किन्तु वैदिक तन्त्रागमों का प्रभाव ही विशेष ज्ञात होता है, क्योंकि नामों का साम्य वैदिक परम्परा से अधिक प्रतीत होता है। मन्त्र, तन्त्र एवं यन्त्र का प्रयोग
वेद के पद्यों को मन्त्र कहा जाता है । इस 'मंत्र' शब्द का प्रयोग जैन वाङ्मय में सर्वप्रथम 'नमस्कार सूत्र' के लिए किया गया । उसे 'नमस्कार मंत्र' के रूप में प्रतिष्ठा मिली तथा इस मंत्र को सब पापों का नाशक प्रतिपादित किया गया।43 नमस्कार मंत्र में पाँच पदों को नमन है- "नमो अरहंताणं (अरिहंताणं), नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं ।" इस नमस्कार मंत्र की चूलिका में इसका महत्त्व प्रतिपादित है – “एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ।" ये पाँच नमस्कार सब पापों के नाशक हैं तथा सभी मंगलों में प्रधान मंगल हैं।
नमस्कार मन्त्र के पश्चात् जैन परम्परा में अनेक मंत्रों का निर्माण हुआ जिसे नैगमिक एवं तन्त्रागमिक प्रभाव माना जा सकता है । नमस्कार मन्त्र से सम्बन्धित भी अनेक मन्त्र हैं । कुछ संक्षिप्त मन्त्र इस प्रकार हैं- ॐ । ॐ अहं । नमो असिआउसाय । नमो अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः। सिंहनन्दी विरचित