Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 489
________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 471 निगमों की प्रतिध्वनिःजैनागमों में निगमों एवं जैनागमों में प्रतिध्वन्यात्मक अन्तःसम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। वेद में चर्चित कतिपय बिन्दुओं की जैनागमों में भिन्न दृष्टि से चर्चा हुई है। प्रायः वेद से जैनागमों का विरोध नहीं है। यह तथ्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (7 वीं शती) विरचित विशेषावश्यकभाष्य में तीर्थकर महावीर के साथ 11 गणधरों के संवाद से विदित होता है। सभी गणधर पहले ब्राह्मण थे, जो विद्वानों के समूह के साथ तीर्थङ्कर महावीर से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने आए। प्रभु महावीर ने अपने ज्ञान से उनकी जिज्ञासाओं को जाना तथा उनका समाधान करने हेतु वेद वाक्य उद्धृत करते हुए उनमें दृष्ट पारस्परिक विरोध का निराकरण किया और कहा कि तुम वेद के सही स्वरूप को नहीं जानते हो।12 'ऊँ' का प्रयोग, यज्ञ का स्वरूप, ब्राह्मण का लक्षण आदि कतिपय विषय जैनागमों में एवं उत्तरवर्ती साहित्य में प्रतिध्वन्यात्मक रूप में चर्चित हुए हैं। 'ॐ' का प्रयोग वेदों में निरूपित 'ऊँकार' या 'प्रणव' का प्रयोग उत्तराध्ययनसूत्र के अतिरिक्त जैनागमों में तो नहीं, किन्तु उत्तरवर्ती साहित्य में जैनीकरण के साथ हुआ है। यहाँ 'अ' 'उ' एवं 'म्' तीन अक्षरों से निर्मित 'ऊँ' शब्द ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का वाचक नहीं, किन्तु प्रसिद्ध 'नमस्कार मन्त्र' में पठित अरिहन्त, असरीर (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि (साधु) के प्रथम अक्षरों के आधार पर निर्मित (अ+अ+आ+उ+म्) 'ऊँ' को अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय एवं मुनि का वाचक माना गया है। ऊँकार का वह पद्य है अरिहंता असरीरा, आयरिया तह उवज्झाया मुणिणो। पदमक्खरणिप्पणो, ऊँकारो पंचपरमेट्ठी ।।" ऊँकार के इस प्रयोग के पश्चात् यह जैन परम्परा का भी अंग बन गया। जैन मंत्रों में 'ऊँ' का भूरिशः प्रयोग हुआ है । मन्त्रराज रहस्य के सूरिमन्त्र में यथा- 'ॐ नमो जिणाणं ।' 'ऊँ नमो ओहिजिणाणं ।' 'ऊँ नमो परमोहिजिणाणं ।' 'ऊँ नमो अणंतोहिजिणाणं ।' आदि । स्तोत्रों में भी ऊँ का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है, यथा वज्रपंजर स्तोत्र में -

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