Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 485
________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध निगम (वेद) भी शब्द प्रमाण हैं और आगम भी। इनका प्रामाण्य आस्था एवं आप्तता की कसौटी पर निर्भर है । निगम में जहाँ शाश्वत अपौरुषेय ज्ञान सन्निहित है वहाँ आगमों में आप्तवाणी का संचय है । निगम एवं आगम दोनों भारतीय वाङ्मय के प्राण हैं । शैव, शाक्त, वैष्णव आदि परम्पराओं के आगमों का अन्तः सम्बन्ध निगमों से फिर भी सम्भव है, किन्तु श्रमण- परम्परा के आगम एवं त्रिपिटिकों की पूर्णतः पृथक् धारा रही है। श्रमण-परम्परा में निगम अर्थात् वेद का प्रामाण्य मान्य नहीं है । वेद का खण्डन या विरोध भी इनमें मुखर नहीं हुआ है। हाँ, वैदिक संस्कृति में विकृतियों एवं कतिपय मान्यताओं का विरोध श्रमण-परम्परा में हुआ है। श्रमण-परम्परा में अनेक धर्म-दर्शन रहे, किन्तु दो दर्शन सम्प्रति प्रमुख हैं- जैन और बौद्ध । इनमें बौद्ध दर्शन शब्द या आगम का पृथक् प्रामाण्य नहीं मानकर परार्थानुमान में ही उसका समावेश कर लेता है। जैनदर्शन 'शब्द-प्रमाण' के स्थान पर आगम-प्रमाण शब्द का प्रयोग करके अपनी वेदबाह्यता का ख्यापन करता है । 'निगम' शब्द वेद या श्रुति का वाचक है। 'निःशेषेण कर्मज्ञानोपासनानांगमः यस्मात्स निगमः' निरुक्ति के अनुसार जिससे ज्ञान, कर्म एवं उपासना का समग्र अवगम हो उसे निगम या वेद कहा गया है। भारतीय परम्परा में शैवागमों, शाक्तागमों एवं वैष्णवागमों को कुछ विद्वान् निगम से पूर्णतः पृथक् निरूपित करते हैं तो कुछ निगम के साथ उन आगमों का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। तन्त्रागमों की धारा को भी इन आगमों का ही अंग माना गया है। किन्तु यहाँ पर जैनागमों एवं निगम में रहे पारस्परिक सम्बन्ध की ही चर्चा की जाएगी। जैनदर्शन में आगम का स्वरूप ___ जैन मान्यता है कि तीर्थङ्करों की वह अर्थरूप वाणी जो गणधरों तथा आचार्यों के द्वारा शब्द रूप में गुम्फित है, 'आगम' कहलाती है।' वादिदेवसूरि (12 वीं शती) 'आगम' का लक्षण करते हुए कहते हैं- "आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। * निगम तथा शैवादि आगमों की परम्पराओं में रहे अन्तःसम्बन्ध को जानने के लिए पठनीय पुस्तक- “निगम तथा शैव-शाक्त-वैष्णव आगम परम्पराओं का अन्तःसम्बन्ध, संपा. राधावल्लभ त्रिपाठी, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली 2010

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