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जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार
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हैं । बौद्धों ने स्वतन्त्र रूप से अपनी सामाजिक परम्परा का जितना विकास किया है, उतना जैनों ने नहीं । आश्रमों के सम्बन्ध में दोनों का मन्तव्य है कि कोई मुमुक्षु ब्रह्मचर्याश्रम की अवस्था में सीधा प्रवज्या ग्रहण कर सकता है, गृहस्थाश्रम में जाना आवश्यक नहीं है। सन्दर्भ:1. मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्यस्मृति में भी 'जाति' शब्द का प्रयोग दिखाई देता है, यथा
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः श्रेयसा चेत्प्रजायते। अश्रेयान् श्रेयसी जातिं गच्छत्यासप्तमाद् युगात् ।।- मनुस्मृति 10.64 जातिभ्रंशकरं कर्म कृत्वान्यतममिच्छया - मनुस्मृति 11.124 जात्युत्कर्षो युगे ज्ञेयः सप्तमे पंचमेऽपि वा ।- याज्ञवल्क्यस्मृति 1.96 जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद् ब्राह्मणब्रुवः । धर्मप्रवक्ता नृपतेन तु शूद्रः कथंचन ।।- मनुस्मृति 8.20
जात्या भवति पुक्कसः । मनुस्मृति 10.18 2. (अ) आदिपुराण भाग -2, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1998, 38.45
(ब) भद्रबाहु (तृतीय शती ई.) ने आचारांगनियुक्ति में कहा है - ‘एक्का मणुस्सजाई'।-आचारांग नियुक्ति, नियुक्ति संग्रह, श्री हर्ष- पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला,
जामनगर, 1989, गाथा 19 3. उत्तराध्ययनसूत्र, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, 12.37 4. उत्तराध्ययनसूत्र, 12.41-42 5. द्रष्टव्य, आचारांगनियुक्ति संग्रह, हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखा बावल, जामनगर,
1989 6. जातिवाद का बीजनाश, डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पुस्तक Annihilation of Caste का
हिन्दी अनुवाद, अनुवादः आचार्य जुगलकिशोर बौद्ध, सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली,
2010, पृ. 55 7. उत्तराध्ययनसूत्र सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, 25.33 8. उत्तराध्ययनसूत्र, 25.31-32 9. सुत्तनिपात, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 2003, वासेट्ठसुत 10. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त 11. मनुस्मृति, चौखाम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 2003, 10.65 12. आदिपुराण, भाग-1, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 16. 243-246 13. जे रायअस्सिता ते. य खत्तिया। हिंसाचोरियादिसु सज्जमाना सोगद्रोहणसीला-सुद्दा
सिप्पवाणिज्जेहिं विसंति-वेस्सा । उज्जुगस्सभावा धम्मप्पिया जे च किंचि हणंतं पिच्छति तं