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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
पत्नियाँ भी अन्य स्त्रियों की भाँति ऋतुमती होती हैं, गर्भिणी होती हैं, प्रसव करती हैं तथा स्तन्यपान कराती हैं । वे ब्राह्मण भी स्त्रीयोनि से ही उत्पन्न हुए हैं। अतः ब्राह्मणों को श्रेष्ठ एवं अन्य वर्गों को जन्म के आधार पर हीन कहना उचित नहीं है । 1 | 16
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सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि गोरक्षा से जीविका करने वाले को कर्षक, शिल्प से जीविका करने वाले को शिल्पी, व्यापार से जीविका करने वाले को वणिक् एवं पुरोहितत्व से जीविकोपार्जन करने वाले को याजक कहा जाता है, ब्राह्मण नहीं । माता की योनि से उत्पन्न होने के आधार पर बुद्ध किसी को ब्राह्मण नहीं कहते । जो भोगवादी या संग्रही है वह ब्राह्मण नहीं, ब्राह्मण तो अकिंचन एवं असंग्रही होता है, जो संग एवं आसक्ति से विरत होता है वह ब्राह्मण है । " ब्राह्मण शब्द का प्रयोग सुत्तनिपात में सुगत या बुद्ध के लिए भी हुआ है, यथा
चुतिं यो वेदि सत्तानं, उपपतिं च सव्वसो । असतं सुगत बुद्धं, तमहं ब्रूमि माहणं ।।
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जो प्राणियों की मृत्यु एवं उत्पत्ति को भलीभाँति जानता है तथा जो आसक्तिरहित, सुगत और बुद्ध ( ज्ञानी) है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ ।
जैन धर्म के उत्तराध्ययन सूत्र तथा बौद्ध धर्म के सुत्तनिपात एवं धम्मपद में ब्राह्मण के जिस स्वरूप का वर्णन प्राप्त होता है, वह वस्तुतः एक उच्च कोटि के श्रमण जीवन से समानता रखता है । उत्तराध्ययन सूत्र की अनेक गाथाओं में प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार जल में उत्पन्न कमल जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामवासनाओं से लिप्त नहीं होता है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं ।" जो मन, वचन, काया तीनों स्तरों पर त्रस एवं स्थावर प्राणियों की हिंसा नहीं करता, जो क्रोध, हास्य, लोभ, भय आदि के कारण झूठ नहीं बोलता वह ब्राह्मण होता है । जो अल्प सचित्त वस्तु को बिना दिए ग्रहण नहीं करता वह ब्राह्मण नहीं होता । इसी प्रकार जो दिव्य मानुष एवं तिर्यंच के मैथुन सेवन का मन, वचन, काया से परिहार करता है वह ब्राह्मण होता है, जो आसक्ति एवं लोलुपता का त्याग करता है वह ब्राह्मण होता है | 20
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