Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 474
________________ 456 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जन्म से इस प्रकार का कोई भेद नहीं पाया जाता। सभी मनुष्य समान ही उत्पन्न होते हैं । सबमें समान ही अंग होते हैं, उनमें जन्मगत वैसा लिंग भेद नहीं होता, जैसा अन्य प्राणियों में देखा जाता है - लिङ्गजातिमयं नैव, यथा अज्ञासु जातिसु।" ___जाति और वर्ण में प्रमुख भेद यह है कि जाति का निर्धारण जहाँ जन्म से होता है वहाँ वर्ण का निर्धारण गुण एवं कर्म के आधार पर होता है। इसलिए जाति जीवनभर एक ही रहती है, किन्तु वर्ण का परिवर्तन आचरण के आधार पर परिवर्तित होना सम्भव है। मनुस्मृति में भी कहा गया है - 'शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।" जन्म से व्यक्ति शूद्र पैदा होता है, किन्तु संस्कारों से वह द्विज कहलाता है। जैनधर्म में कर्म-सिद्धान्त के अन्तर्गत यह प्रतिपादन किया गया है कि कोई व्यक्ति नीच गोत्र कर्म के साथ जन्म लेकर अपनी साधना के बल पर उच्चगोत्र का हो सकता है। हरिकेशी मुनि, अर्जुनमाली आदि इसके उदाहरण हैं। __ आचार्य जिनसेन (६वीं शती) ने आदिपुराण में वर्ण-व्यवस्था की चर्चा की है। उन्होंने उल्लेख किया है कि राजा ऋषभदेव जो प्रथम तीर्थंकर बने, ने तीन वर्षों क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र की स्थापना की और उनके पुत्र भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की ।" वर्गों का यह उल्लेख एक ओर वर्णों की प्राचीनता को सिद्ध करता है, दूसरी ओर जिनसेन पर वैदिक परम्परा के प्रभाव को इङ्गित करता है । यहाँ पर यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि जैन एवं बौद्ध परम्परा में ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय को अधिक महत्त्व दिया गया है, क्योंकि भगवान महावीर एवं गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय वर्ण में उत्पन्न हुए थे। जैनधर्म में ऐसी किम्वदन्ती है कि महावीर पहले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में उत्पन्न हुए, एवं फिर देवों के द्वारा उनका गर्भ रानी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित किया गया । बौद्धग्रन्थों में क्षत्रिय के पश्चात् ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र की गणना की गई है। जैन तीर्थंकर एवं बुद्ध भले ही क्षत्रिय हुए हों, किन्तु उनके प्रमुख शिष्य गणधर एवं आचार्य प्रायः ब्राह्मण हुए हैं । उन्होंने जैन एवं बौद्ध धर्म का प्रतिपादन एवं प्रचार किया है। वैश्य एवं शूद्र भी जैन-बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए हैं । आज जैनधर्म

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