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जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार
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के अधिकांश अनुयायी वैश्य हैं तथा बौद्ध धर्म एशिया के विभिन्न देशों में बृहत् स्तर पर फैला हुआ है । यूरोप, अमेरिका आदि महाद्वीपों में भी इसका अस्तित्व दिखाई देता है।
जैन ग्रन्थ आचारांगचूर्णि में राजा के आश्रित वंशानुगतों को 'क्षत्रिय', हिंसा, चोरी आदि कार्यों में संलग्न, शोक, द्रोह स्वभाव वाले मनुष्यों को 'शूद्र', शिल्प, वाणिज्य से जीवन-यापन करने वालों को 'वैश्य' कहा गया है। जो सरल स्वभावी, धर्मप्रिय होते हैं, स्वयं हिंसा नहीं करते तथा हिंसा करने वाले को रोकते हैं एवं उससे कहते हैं - 'हे माहण! मा हण' अर्थात् तुम हिंसा मत करो। इस प्रकार का आचरण करने वाला 'ब्राह्मण' होता है।'
ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में ब्राह्मण को परमपुरुष ब्रह्म के मुख से, क्षत्रिय को भुजाओं से, वैश्य को जङ्घाओं से तथा शूद्र को पैरों से उत्पन्न स्वीकार किया गया है।"जैनाचार्य प्रभाचन्द्र (980-1065ई.) ने ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्म के मुख से होने का खण्डन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ में वे खण्डन करते हुए वैदिकों से पूछते हैं- ब्रह्म ब्राह्मण है या नहीं ? यदि वह ब्राह्मण नहीं है तो उससे ब्राह्मण की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? एक मनुष्य अमनुष्य से उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि ब्रह्म ब्राह्मण है तो वह अपने सभी अंगों से ब्राह्मण है या मात्र मुख से ? यदि वह सभी अंगों से ब्राह्मण है तो संसार के सभी प्राणी जो ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, वे ब्राह्मण हैं। यदि ब्रह्म मात्र मुख से ब्राह्मण है तो उसके अन्य अंग शूद्र की श्रेणी में आएंगे। इसलिए ब्राह्मण को ब्रह्म के चरणों में प्रणाम नहीं करना चाहिए।'
बौद्ध धर्म के अनुसार भी मानव की श्रेष्ठता का आधार उसका आचरण है, ब्राह्मणादि वर्गों में जन्म लेना नहीं। इस तथ्य को गौतम बुद्ध ने यथार्थ के धरातल पर आश्रित तों से सिद्ध किया है। ब्राह्मणों की उस समय मान्यता थी कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, अन्य वर्ण हीन है, ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण है, अन्य वर्ण कृष्ण है, ब्राह्मण ही शुद्ध है, अन्य वर्ण नहीं । ब्राह्मण ब्रह्मा के औरस पुत्र हैं तथा मुख से उत्पन्न हुए हैं। इस मान्यता का जैविक एवं शारीरिक आधार पर निरसन करते हुए भगवान् बुद्ध दीघनिकाय के अग्गज्ञसुत्त में कहते हैं- हे वासिष्ठ! ब्राह्मणों की