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जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार
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एसुकारीसुत्त में बुद्ध क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र के क्रमशः भिक्षाचर्या, शस्त्रविद्या, कृषि- गोरक्षा एवं भार ढोना आदि स्वधर्मों का खण्डन करते हैं । बुद्ध की दृष्टि में पुरुष का लोकोत्तर धर्म ही स्वधन है, जो उसे दुःखमुक्त बनाता है। वर्गों की समानता के सम्बन्ध में वे कहते हैं के नदी में स्नान करके ब्राह्मण ही स्वच्छ नहीं होता, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भी स्वच्छ हो सकता है । इसी प्रकार प्राणातिपातविरति, अदत्तादानविरति आदि कुशल धर्मों को किसी भी वर्ण का व्यक्ति अपना सकता है। ___ यहाँ एक विशेष बात उल्लेखनीय है कि जैन धर्म में श्रमण, श्रमणी, श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका इन चार को तीर्थ या संघ कहा गया है तथा इन चार के लिए चाउवण्णे (चातुर्वर्ण्य) शब्द का भी प्रयोग किया गया है। आश्रम-चिन्तन
भारतीय हिन्दू परम्परा के धर्मशास्त्रों में जीवन की अवधि सौ वर्ष मानकर उसके चार विभाग किए गए हैं- 1. ब्रह्मचर्याश्रम 2. गृहस्थाश्रम 3. वानप्रस्थाश्रम एवं 4. संन्यासाश्रम। प्रत्येक आश्रम के लिए क्रमिक रूप से पच्चीस वर्ष निर्धारित माने गए। अतः 25 वर्ष की आयु तक का काल ब्रह्मचारी रहकर विद्याध्ययन करने, उसके पश्चात् 50 वर्ष की आयु तक का काल गृहस्थ जीवन में विवाह, सन्तानोत्पत्ति आदि गार्हस्थिक कार्यों हेतु निर्धारित किया गया। हिन्दू परम्परा की यह मान्यता रही कि पुत्रोत्पत्ति हुए बिना सद्गति नहीं होती। (अपुत्रस्य गति स्ति)। 51 से 75 वर्ष के आयुकाल में गृहस्थ का दायित्व सन्तान को सौंपकर वन में निवास करने का विधान था। पत्नी जीवित हो तो वन में उसके साथ भी रहा जा सकता था। संन्यास आश्रम पूर्णतः मोहत्याग का आश्रम रहा। इन चार आश्रमों के क्रम को अपनाना बौद्ध एवं जैन आवश्यक नहीं मानते। उनके अनुसार कोई मुमुक्षु ब्रह्मचर्याश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में भी प्रवेश कर सकता है। जैनधर्म में अतिमुक्तक कुमार, वज्रस्वामी आदि इसके उदाहरण हैं। वर्तमान में भी जैनधर्म के ऐसे अनेक आचार्य एवं सन्त हैं जो बालवय में दीक्षित हैं। जैन-बौद्धों की इस परम्परा का प्रभाव वैदिक संस्कृति पर भी पड़ा। यही कारण है कि वेदान्त के