Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 462
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से शाश्वत होते हैं तथा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अशाश्वत होते हैं । 444 कर्मसिद्धान्त का जितना विस्तृत एवं व्यवस्थित प्रतिपादन जैनदर्शन में प्राप्त होता है उतना बौद्धदर्शन में नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि अन्य सभी भारतीय दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त का गूढ़ एवं विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। जैनदर्शन में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय - इन आठ कर्मों एवं इनकी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन हुआ है। षट्खण्डागम, प्रज्ञापनासूत्र, भगवतीसूत्र, कसायपाहुड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड एवं विभिन्न कर्मग्रन्थों में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। बंधनकरण, उदीरणाकरण, अपकर्षण, उत्कर्षण, उपशमना, संक्रमण, निधत्त, निकाचना आदि करणों का विवेचन जैन ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण रीति से प्राप्त होता है। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में भी परिवर्तन कर सकता है । मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं विधाता है। गुणश्रेणी में चढ़ता हुआ साधक अन्तर्मुहूर्त में अपने कर्मों का क्षय कर सकता है। गुणस्थानसिद्धान्त, लेश्यासिद्धान्त आदि जैनदर्शन के विशिष्ट सिद्धान्त हैं जो उसे बौद्धदर्शन से पृथक् प्रतिपादित करते हैं । बौद्ध दर्शन में कर्मसिद्धान्त की चर्चा प्राप्त होती है। वहाँ आलयविज्ञान में वासनाएँ स्वीकार की गई हैं जो समय आने पर फल प्रदान करती हैं। जैन दर्शन की भाँति बौद्धदर्शन में कर्म को पौद्गलिक या अचेतन नहीं माना गया है। बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया में आस्रव, संवर आदि पारिभाषिक शब्द जिस प्रकार जैनदर्शन में प्रयुक्त हुए हैं उसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी उनका प्रयोग दिखाई देता है। ये शब्द दोनों दर्शनों में लगभग समान अर्थ रखते हैं। जैनदर्शन में पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए तप का विधान है। बौद्धधर्म में तप को कायक्लेश मानकर छोड़ दिया गया, किन्तु जैनदर्शन आत्मानुशासन के लिए तथा पूर्वबद्ध कर्मों को शिथिल एवं निर्जरित करने के लिए बाह्य एवं आभ्यन्तर तप का प्रतिपादन करता है। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग ये

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