Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 464
________________ 446 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन गया है जो जैन साहित्य की विशालता इंगित करता है। दिगम्बरपरम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि ग्रन्थ सुरक्षित हैं जो पूर्ववर्ती कर्मवाद के अंशरूप में स्वीकार्य हैं । कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड आदि कृतियाँ आगमवत् मान्य की गई हैं । तिलोयपण्णत्ति, भगवती आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थ भी दिगम्बरपरम्परा की थाती हैं । यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों का अध्ययन करें तो जैनपरम्परा की प्रस्तुति अधिक सशक्त रूप में हो सकती है। इस दिशा में विद्वानों ने कदम भी आगे बढ़ाये हैं, जो स्तुत्य हैं। अहिंसा का प्रतिपादन यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में प्राप्त होता है, तथापि जैनधर्म में उसकी विशेष सूक्ष्मता दृष्टिगोचर होती है। जैनदर्शन में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, जीवों की जो परिकल्पना है, वह बौद्ध दर्शन में दिखाई नहीं देती है । बौद्धन्याय के ग्रन्थों में तो वनस्पति को भी चेतनारहित स्वीकार किया गया है, जबकि विज्ञान ने भी वनस्पति में प्रयोग द्वारा चेतना सिद्ध कर दी है। जैनदर्शन लोक को वास्तविक प्रतिपादित करता है तथा उसकी समुचित व्याख्या करता है । जैनदर्शन के अनुसार यह लोक पंचास्तिकायात्मक अथवा षड्द्रव्यात्मक है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय - ये पाँच अस्तिकाय जिसमें हो वह लोक है। इनमें कालद्रव्य को मिलाकर लोक को षड्द्रव्यात्मक भी कहा गया है । बौद्धदर्शन में अस्तिकाय की कोई अवधारणा नहीं है, न ही वहाँ धर्म, अधर्म द्रव्यों की परिकल्पना है । आकाश एवं काल को बौद्धदर्शन भी स्वीकार करता है। जीव को बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञान या पुद्गल कहा गया है । जैनदर्शन का पुद्गल वहाँ रूप शब्द से अभिहित है। पुद्गल परमाणु का जो सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में प्राप्त होता है वह बौद्धदर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैनदर्शन में ज्ञान एवं दर्शन को जीव का लक्षण स्वीकार करते हुए इन दोनों को पृथक् प्रत्ययों के रूप में परिभाषित किया गया है जबकि बौद्धदर्शन में ऐसे दो पृथक् प्रत्यय नहीं हैं । बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेदों

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