Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 467
________________ जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन : एक तुलनात्मक दृष्टि 449 करना उचित समझा । इसके विपरीत भगवान महावीर ने शाश्वतता और अशाश्वतता का नय दृष्टि से समन्वय स्थापित किया है जो जैन धर्म की व्यापक अनेकान्त दृष्टि का सूचक है। ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से जैन दर्शन पाँच ज्ञानों का प्रतिपादन करते हुए ज्ञान को सविकल्पक निरूपित करता है तथा दर्शन को निर्विकल्पक रूप में स्थापित करते हुए उसे ज्ञान से पृथक् प्रत्यय के रूप में प्रतिष्ठित करता है, जबकि बौद्ध दर्शन ज्ञान के ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेद अंगीकार करता है। आचारमीमांसा की दृष्टि से देखें तो दोनों दर्शन सम्यग्दर्शनपूर्वक आचार को महत्त्व देते हैं, किन्तु बौद्ध दर्शन आचार के परिपालन में अधिक कठोरता एवं शिथिलता के मध्य का मार्ग अपनाता है, वहाँ जैन दर्शन में ज्ञानपूर्वक आचरण की कठोरता पर बल प्रदान किया गया है। यही कारण है कि जैन साधु-साध्वी आज भी आचार पालन की दृष्टि से अन्य धर्मों के साधु-साध्वियों की अपेक्षा अग्रणी हैं । दोनों दर्शनों का अध्ययन करने पर विदित होता है कि इनका पारस्परिक अध्ययन इन दर्शनों के हार्द को समझने में सहायक है। दोनों दर्शनों की आध्यात्मिक दृष्टि अत्यन्त समृद्ध है तथा मानवीय चरित्र को उन्नत बनाने में सहायक है। दोनों धर्मों में क्रोधादि, रागादि विकारों पर विजय को महत्त्व दिया गया है। सन्दर्भः 1. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि स धर्मः।- वैशेषिक सूत्र 1.1.2 2. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त 3. उत्तराध्ययनसूत्र, भाग 3, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, अध्ययन 25, गाथा 33 4. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 38.45 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र (भगवतीसूत्र) आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, शतक 12, उद्देशक 2, पृष्ठ-134 6. दीघनिकाय-33 संगितिपरियाय सुत्त में चार प्रश्नव्याकरण, द्रष्टव्य, आगम-युग का जैनदर्शन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 1990, पृ. 53-54 7. योगसूत्र में भी इनका उल्लेख हुआ है- मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखःदुखपुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।- योगसूत्र 1.33 8. नागार्जुन, मध्यमूल 24.10

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