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जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन : एक तुलनात्मक दृष्टि
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में विभक्त करते हैं जबकि जैनदर्शन में दर्शन को निर्विकल्पक एवं ज्ञान को सविकल्पक स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक दर्शन एवं ज्ञान का क्रम स्वीकार करते हैं । दर्शन के पश्चात ज्ञान एवं ज्ञान के अनन्तर दर्शन का क्रम चलता रहता है। जैनदर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हैं- 1. मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान) 2. श्रुतज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनःपर्याय ज्ञान एवं 5. केवलज्ञान । बौद्धदर्शन में ज्ञान के इस प्रकार के भेद परिलक्षित नहीं होते हैं।
अनेकान्तवाद जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है । आचार्य सिद्धसेन ने अनेकान्तवाद की व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता अंगीकार करते हुए कहा है कि अनेकान्तवाद के बिना लोक का व्यवहार नहीं चल सकता
जेण विणालोगस्सववहारो विसव्वहान निव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमोऽणेगंतवायस्स ।।" अनेकान्तवाद में व्यवहार और निश्चय का समन्वय स्थापित किया जाता है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र ने निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कहा है
एकनाकर्षन्तीश्लथयन्तीवस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेनजयतिजैनीनीतिर्मन्थाननेत्रमिवगोपी।" बुद्ध जहाँ शाश्वतवाद (आत्मा को नित्य मानने पर शाश्वतवाद का प्रसंग आता है) और उच्छेदवाद (चेतना को न मानने पर उच्छेदवाद का प्रसंग उपस्थित होता है) को स्वीकार नहीं करते हैं एवं आत्मा के स्वरूप के संबंध में उसकी नित्यता या अनित्यता के प्रतिपादन से बचते हैं वहाँ जैन दर्शन में आत्मा को नित्यानित्यात्मक स्वीकार किया गया है।
बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है उसमें सत् या वस्तु उसे कहा गया है जो अर्थक्रियाकारी हो तथा क्षणिक वस्तु ही अर्थक्रिया में समर्थ होती है। उन्होंने नित्य पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व को असंभव बताकर क्षणिक पदार्थ में उसे स्वीकार किया है। जैन दार्शनिक वस्तु को द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से नित्य तथा पयार्यार्थिक नय की दृष्टि से अनित्य स्वीकार करते हैं।