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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण
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'स्थिरमति' शब्दकाप्रयोगभीस्थितप्रज्ञकेसमत्वलक्षणमें कियागयाहै, यथा
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ।।-भगवद्गीता, 12.18 तुल्यनिन्दास्तुतिौनी संतुष्टो येनकेनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः ।।-भगवद्गीता, 12.19 शत्रु और मित्र के प्रति सम रहने वाला, सम्मान एवं अपमान में समान रहने वाला, शीत, उष्ण तथा सुख एवं दुःख में संग (आसक्ति) रहित होकर सम रहने वाला, निन्दा एवं प्रशंसा में सम रहने वाला, सर्वथा संतुष्ट रहने वाला मौनी संन्यासी स्थिरमति होता है तथा वह भक्तिसम्पन्न स्थिरमति मनुष्य मेरा प्रिय है। ___ इस प्रकार स्थिरमति एवं स्थिरबुद्धि शब्दों का प्रयोग समत्वप्राप्त मनुष्य के अर्थ में किया गया है, स्थितप्रज्ञ का भी यही मुख्य लक्षण है कि वह सुख एवं दुःख के कारणों से प्रभावित नहीं होता। वह सुख में राग एवं दुःख में द्वेष नहीं करता। जैसा कि कहा है
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।- भगवद्गीता, 2.57 जो सर्वत्र राग रहित (अनभिस्नेह) है, शुभ (प्रिय) वस्तु को प्राप्त कर उससे हर्षित नहीं होता तथा अशुभ (अप्रिय) वस्तु को प्राप्त कर उससे द्वेष नहीं करता, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है अर्थात् वह स्थितप्रज्ञ होता है।
मनुष्य स्थितप्रज्ञ कब बनता है अथवा उसकी प्रज्ञा स्थित (प्रतिष्ठित) कब होती है, इसका निरूपण करते हुए गीता में कहा गया है -
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥-भगवद्गीता, 2.58 जब साधक अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों (रूपरसादि) से उसी प्रकार समेट लेता है, जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को चारों ओर से समेट लेता है, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो- 'वशेहि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'- गीता 2/61 अर्थात् जिसके वश में इन्द्रियाँ हैं, उसकी प्रज्ञा स्थित है।