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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण
अन्य विकारों का भी ग्रहण कर लेते हैं। स्थितप्रज्ञ में भी वीतराग की भाँति राग-द्वेषादि विकारों का समूल नाश हो जाता है । जैसा कि कहा है'रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयान्निन्द्रियैश्चरन्" इत्यादि ।
3. विषयों से विमुखता - वीतराग पुरुष की पाँचों इन्द्रियाँ (कान, आँखें, नाक, जीभ एवं स्पर्शन) एवं मन विषय-भोगों की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं। वह विषय-भोगों से विमुख हो जाता है। स्थितप्रज्ञ भी इन्द्रिय-विषयों से अपने आपको समेट लेता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन ! जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों से पूर्णतः निगृहीत हैं, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है। "
4. दुःख-नाश - वीतरागता की प्राप्ति के साथ ही दुःखों का विनाश हो जाता है । वीतराग के पास किसी भी प्रकार का दुःख नहीं फटकता । वह सर्वविध दुःखों का अंत कर देता है- जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ।” अर्थात् जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, वीतराग उन सबका अंत कर देता है । अन्यत्र उत्तराध्ययन में ही - ते चेव थोवं वि कयाइ दुक्खं, ण वीयरागस्स कति किंचि'' कहकर वीतराग से दुःखों को दूर रख दिया है।
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‘स्थितप्रज्ञ' भी इन्द्रियनियंत्रण कर एवं आत्मवश्य होकर आचरण करता है तो वह प्रसाद (प्रसन्नता) प्राप्त करता है तथा प्रसाद प्राप्त करने पर सब दुःखों का विनाश हो जाता है, यथा
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति । - भगवद्गीता, 2.64 प्रसादे सर्वेदुःखानां हानिरस्योपजायते ।। - भगवद्गीता, 2.65
5. अत्यन्त सुख एवं शान्ति - उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष का क्षय करने वाले वीतराग को एकान्तसुख (अव्याबाध - सुख, अक्षयसुख, अनन्तसुख) का प्राप्तकर्ता कहा है, यथा-रागस्स दोसस्स य संखएण, एगन्त- सोक्खं समुवेइ मोक्खं ।” बत्तीसवें अध्ययन में सब कर्मों से मुक्त होने पर उसे अत्यन्त सुखी बतलाया है. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहइ सययं जंतुमेयं । दीहामयं विप्पमुक्को पसत्थो तो होई अच्वंतसुही कयत्थो । । - उत्तरा 32.110
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जो दुःख इस जीव को निरन्तर पीड़ित कर रहा है, उस समस्त दुःख से वह