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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
माणवक ने प्रश्न किया कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता। इसमें आपका क्या मन्तव्य है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम बुद्ध ने कहा कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है, तो वह निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं होता और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं होता। किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं तो आराधक होते हैं । गौतम बुद्ध ने इस आधार पर अपने को विभज्यवादी बताया है, एकांशवादी नहीं । ___ बौद्धदर्शन में मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा नाम से चार ब्रह्मविहारों का निरूपण हुआ है ।' जैनदर्शन में निरूपित मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाएँ बौद्ध धर्म के ब्रह्मविहार के साथ समन्वय स्थापित करती हैं। प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव गुणिजनों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव एवं विपरीत वृत्ति वाले जीवों के प्रति माध्यस्थ्य भाव का प्रतिपादन जैनदर्शन में हुआ है। वीरसेवा मंदिर के संस्थापक पंडित जुगलकिशोर मुख्तार ने इन चार भावनाओं को मेरी भावना में इस प्रकार निबद्ध किया है
मैत्रीभाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे दीनदुःखी जीवों पर मेरे, उरसे करुणास्रोत बहे । दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे साम्यभाव रखू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ।। गुणीजनों को देख हृदय में,मेरे प्रेम उमड़आवे
बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मनसुखपावे। बौद्धदर्शन में दो प्रकार के सत्यों का प्रतिपादन हुआ है- 1. व्यवहार सत्य व 2. परमार्थ सत्य। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन इन दोनों की महत्ता अंगीकार करते हैं। उनका कथन है
व्यवहारमनाश्रित्यपरमार्थोनदेश्यते ।
परमार्थमनागम्यनिर्वाणंनाधिगम्यते ।।' अर्थात् व्यवहार का आश्रय लिए बिना परमार्थ को नहीं समझाया जा सकता और परमार्थ को जाने बिना निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों का अपना-अपना महत्त्व है। समयसार ग्रन्थ में