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पर्यावरण-संरक्षण में भोगोपभोग - परिमाणवत की भूमिका
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वर्ण, जाति आदि के आधार पर मानवसमुदाय का विभाजन एवं इन आधारों पर उनको उच्च या निम्न समझना जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों को स्वीकार्य नहीं हैं। दोनों धर्म-दर्शनों के साहित्य में जातिव्यवस्था का प्रबल खण्डन हुआ है तथा धर्म का द्वार सबके लिए समानरूप से खोला गया है। बौद्धग्रन्थ सुत्तनिपात में कहा गया है
नजच्चावसलो होतिनजच्चाहोति ब्राह्मणो।
कम्मुनावसलोहोति, कम्मुनाहोतिब्राह्मणो॥ जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मणाहवइखत्तिओ।
वइस्सो कम्मणा होइ, सुद्दोहवइ कम्मुणा ।। अर्थात् अपने कर्म या आचरण से ही कोई ब्राह्मण होता है, कर्म से ही कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। आदिपुराण में समस्त मनुष्यों की एक ही जाति मानी गई है- मनुष्यजातिरेकैव । इसीलिए इन दोनों धर्मों में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सभी वर्गों के व्यक्ति दीक्षित या प्रव्रजित हुए हैं।।
इन दोनों धर्मों की एक समानता यह है कि दोनों धर्म के प्रवर्तकों ने अपना उपदेश लोकभाषा में दिया है । तीर्थंकर महावीर ने अपना उपदेश अर्धमागधी प्राकृत में दिया है तो बुद्ध ने पालिभाषा में । पालिभाषा प्राकृत का ही अंग रही है। इस दृष्टि से ये दोनों धर्म आम लोगों को जोड़ने में सक्षम रहे हैं।
जैनपरम्परा में जिस प्रकार भगवान महावीर प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद शैली में देते हैं, उसी प्रकार बुद्ध भी त्रिपिटकों में विभज्यवाद की शैली का प्रयोग करते हैं। विभज्यवाद शैली में प्रश्नों का उत्तर विभक्त करके दिया जाता है। उदाहरण के लिए भगवान महावीर से जयन्ती श्राविका द्वारा प्रश्न किया गया कि मनुष्य का सोना अच्छा है या जागना? प्रभु ने इसका उत्तर देते हुए कहा- जयन्ती! जो अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्म से आजीविका चलाने वाले लोग हैं, उनका सुप्त रहना अच्छा है तथा जो धार्मिक हैं, धर्मानुसारी यावत् धर्मपूर्वक आजीविका चलाने वाले हैं, उन जीवों का जागना अच्छा है। गौतम बुद्ध भी इसी प्रकार विभज्यवाद शैली का प्रयोग करते हैं । मज्झिमनिकाय में शुभ