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________________ 429 वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण अन्य विकारों का भी ग्रहण कर लेते हैं। स्थितप्रज्ञ में भी वीतराग की भाँति राग-द्वेषादि विकारों का समूल नाश हो जाता है । जैसा कि कहा है'रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयान्निन्द्रियैश्चरन्" इत्यादि । 3. विषयों से विमुखता - वीतराग पुरुष की पाँचों इन्द्रियाँ (कान, आँखें, नाक, जीभ एवं स्पर्शन) एवं मन विषय-भोगों की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं। वह विषय-भोगों से विमुख हो जाता है। स्थितप्रज्ञ भी इन्द्रिय-विषयों से अपने आपको समेट लेता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन ! जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों से पूर्णतः निगृहीत हैं, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है। " 4. दुःख-नाश - वीतरागता की प्राप्ति के साथ ही दुःखों का विनाश हो जाता है । वीतराग के पास किसी भी प्रकार का दुःख नहीं फटकता । वह सर्वविध दुःखों का अंत कर देता है- जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ।” अर्थात् जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, वीतराग उन सबका अंत कर देता है । अन्यत्र उत्तराध्ययन में ही - ते चेव थोवं वि कयाइ दुक्खं, ण वीयरागस्स कति किंचि'' कहकर वीतराग से दुःखों को दूर रख दिया है। 16 ‘स्थितप्रज्ञ' भी इन्द्रियनियंत्रण कर एवं आत्मवश्य होकर आचरण करता है तो वह प्रसाद (प्रसन्नता) प्राप्त करता है तथा प्रसाद प्राप्त करने पर सब दुःखों का विनाश हो जाता है, यथा आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति । - भगवद्गीता, 2.64 प्रसादे सर्वेदुःखानां हानिरस्योपजायते ।। - भगवद्गीता, 2.65 5. अत्यन्त सुख एवं शान्ति - उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष का क्षय करने वाले वीतराग को एकान्तसुख (अव्याबाध - सुख, अक्षयसुख, अनन्तसुख) का प्राप्तकर्ता कहा है, यथा-रागस्स दोसस्स य संखएण, एगन्त- सोक्खं समुवेइ मोक्खं ।” बत्तीसवें अध्ययन में सब कर्मों से मुक्त होने पर उसे अत्यन्त सुखी बतलाया है. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहइ सययं जंतुमेयं । दीहामयं विप्पमुक्को पसत्थो तो होई अच्वंतसुही कयत्थो । । - उत्तरा 32.110 - जो दुःख इस जीव को निरन्तर पीड़ित कर रहा है, उस समस्त दुःख से वह
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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