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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
वीतराग और स्थितप्रज्ञ: समानताएँ
वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ के स्वरूप एवं विशेषताओं पर विचार करने पर निम्नलिखित समानताएँ प्रतीत होती हैं
1. समता - वीतराग का प्रमुख गुण है समता । वह मनोज्ञ (प्रिय) रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द एवं भावों के प्रति राग नहीं करता तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द एवं भावों के प्रति द्वेष नहीं करता । प्रिय एवं अप्रिय दोनों स्थितियों में वीतराग सम रहता है- स्थितप्रज्ञ में भी यह प्रमुख विशेषता होती है । वह भी वीतराग के सदृश सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि में समदर्शी होता है। गीता में प्रज्ञा के स्थित (प्रतिष्ठित ) होने का अर्थ समता की प्राप्ति
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2. राग
-द्वेषादिविकारविहीनता - वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ दोनों राग-द्वेष आदि विकारों से रहित होते हैं | राग को सब विकारों का मूल कहा जा सकता है। जहाँ राग है, वहाँ समस्त विकार ( कषाय) विद्यमान हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कामगुणों में आसक्त (रागयुक्त ) जीव में अन्य विकारों की उपस्थिति को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
कोहंच माणंच तहेव मायं, लोहं दुगंछं अरई रइंच |
हासं भयं सोग पुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ॥ उत्तरा, 32.102
आवज्जइ एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो ।
अन्नेय एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से । । उत्तरा, 32.103
अर्थात् कामभोगों में आसक्त ( रागयुक्त ) जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उसी प्रकार के अनेक भावों को एवं विविध रूपों को तथा इनसे उत्पन्न होने वाले अन्य अनेक विकार विशेषों को प्राप्त करता है । इस कारण से वह कामासक्त जीव करुणा-पात्र, लज्जित एवं द्वेष्य बन जाता है । राग का नाश होते ही इन सब विकारों का विनाश हो जाता है ।
भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञ को राग, भय एवं क्रोध से रहित बताया गया हैवीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते । ये तीन विकार (दोष) उपलक्षण से तत्सदृश