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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
का विग्रह होगा- "स्थिता प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः' अर्थात् जिसकी प्रज्ञा स्थित (स्थिर) है वह स्थितप्रज्ञ है। 'स्थितप्रज्ञ' शब्द में स्थित शब्द जड़ता का सूचक नहीं, अपितु समता का सूचक प्रतीत होता है । यह गीता का अपना विशिष्ट शब्द है । अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से स्थितप्रज्ञ का स्वरूप समझने की जिज्ञासा प्रकट की तो श्रीकृष्ण ने इस प्रकार समझाया
प्रजहाति यदाकामान्, सर्वान्पार्थ !मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।- भगवद्गीता, 2.55 दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषुविगतस्पृहः ।
वीतराग-भय-क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। - भगवद्गीता, 2.56 हे अर्जुन ! जब साधक अपने मन में स्थित समस्त कामनाओं (भोगेच्छाओं) का त्याग कर देता है तथा अपने आपमें संतुष्ट हो जाता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 2.55
जिसका मन दुःखों (दुःखद स्थितियों) में उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों (सुखद स्थितियों) में उनको पाने की अभिलाषा नहीं रखता, ऐसा राग, भय एवं क्रोध से रहित मुनि स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 2.56 __स्थितप्रज्ञ के उपर्युक्त लक्षण से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं- (1) जो स्थितप्रज्ञ होता है वह (सुख-भोग की) कामना से रहित होता है । (2) वह अपने आपमें संतुष्ट रहता है । (3) दुःख में उद्विग्न नहीं होता तथा सुख की अभिलाषा नहीं रखता अर्थात् दुःख एवं सुख में सम रहता है । (4) वह राग, भय एवं क्रोधादि विकारों से रहित होता है।
गीता में स्थितप्रज्ञ को 'स्थिरबुद्धि' एवं 'स्थिरमति' शब्दों से भी अभिहित किया गया है। स्थिरबुद्धि शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है
नप्रहृष्येत् प्रियंप्राप्य नोद्विजेत्प्राप्यचाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।।- भगवद्गीता, 5.20 अर्थात् स्थिरबुद्धि, मनुष्य असंमूढ एवं ब्रह्मविद् होकर ब्रह्म में स्थित रहता है तथा प्रिय वस्तु को प्राप्त कर हर्षित नहीं होता और अप्रिय वस्तु को प्राप्त कर उद्विग्न नहीं होता।