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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
होता है। वीतराग पुरुष समस्त दुःखों का अन्त कर देता है, यथाकामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छ्इ वीयरागो । । - उत्तरा. 32.19 देवलोक सहित सम्पूर्ण लोक में जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं, वे काम भोगों में आसक्ति से उत्पन्न होते हैं। वीतराग पुरुष उन दुःखों का अन्त कर देता है।
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वीतरागता की प्राप्ति होने का अर्थ है राग-द्वेष का नाश अथवा मोहकर्म का क्षय। मोहकर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का भी क्षय हो जाता है, जैसा कि कहा है -
सवीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं ।
तहेव जं दंसणमावरेइ, जं चंतरायं पकरेइ कम्मं ।। - उत्तरा . 32.108
वह वीतराग अशेष कार्य करके, क्षण भर में ही ज्ञानावरण का क्षय कर देता है तथा दर्शन का आवरण करने वाले कर्म एवं अंतराय कर्म का भी उसी प्रकार क्षय कर देता है।
इन चार घाति-कर्मों का क्षय होने के पश्चात् मुक्ति सुनिश्चित है। मुक्ति का सुख अक्षय एवं अव्याबाध होता है । उस सुख का कभी नाश नहीं होता तथा पुनः दुःख नहीं होता। अतः उत्तराध्ययन में इसे 'एकान्तसुख' शब्द दिया गया है
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रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं । - उत्तरा . 32.2
राग एवं द्वेष का पूर्णतः संक्षय होने से वीतराग साधक मोक्ष रूप एकान्त-सुख को प्राप्त करता है।
वीतरागता
वीतराग की भाववाचक संज्ञा वीतरागता है। वीतरागता ही साधक का लक्ष्य होती है। वीतरागता की साधना से ही वीतराग बना जा सकता है। वीतरागता प्राप्त होती है राग-द्वेष-कषायों के त्याग से । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में प्रश्न किया गया है - कसायपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ- हे भगवन् ! कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने में जीव क्या लाभ प्राप्त करता है? तो भगवान् उत्तर देते हैं- कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ, वीयरागभावं पडिवण्णे वि य णं