Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 440
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन प्रति द्वेष करता है । वह समतापूर्वक दोनों स्थितियों को देखता भर है। वह न अनकूलता में सुखी होता है और न प्रतिकूलता में दुःखी। वह दुःख-सुख से अतीत होकर समतापूर्वक उनको देखता रहता है। जो सुखद कामभोगों के प्रति राग करता है वह अपनी समता भंग करता है तथा जो दुःखद परिस्थितियों के प्रति द्वेष करता है अथवा उनसे दुःखी हो जाता है, वह भी समता भंग करता है। समता भंग होने पर वह मोह से विमूढ़ हो जाता है । ऐसा पुरुष सदैव दुःख प्राप्त करता रहता है। वीतराग पुरुष दुःखों से रहित हो जाता है । दुःख के मूल कारण तो राग और द्वेष हैं। जो राग-द्वेष से रहित है वह दुःखों से भी रहित है । राग-द्वेष ही कर्मबन्धन के बीज हैं, जैसा कि कहा है - - रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । 422 I कम्मं च जाई - मरणस्स मूलं, दुक्खं चजाई - मरणं वयंति । । - उत्तरा. 32.7 अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज हैं, वह कर्म मोह से उत्पन्न होता है । कर्म ही जन्म एवं मरण का मूल कारण है और जन्म-मरण दुःख हैं । मनुष्य पाँच इन्द्रियों एवं एक मन के माध्यम से सुखभोग करता रहता है । वह मधुर संगीत सुनकर हर्षित होता है, अनिंद्य सौन्दर्य को देखकर भोगने हेतु लालायित हो जाता है, शरीर को सुगन्धित करने हेतु अनेक प्रसाधन-सामग्रियों का प्रयोग करता है, जिहूवा को स्वाद देते रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है तथा काया के स्पर्शनसुख के लिए भले-बुरे को भी भूल जाता है, मानसिक कल्पनाओं के सुख में दिवास्वप्न लेने लगता है। किन्तु ये सारे ऐन्द्रियक सुख मनुष्य को बेभान बनाते हैं, उसकी चेतना-शक्ति को आवृत्त करते हैं तथा विवेक को कुण्ठित बनाते हैं और मनुष्य में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । उत्तराध्ययन में तो ऐन्द्रियक सुखों में तीव्र राग करने वाले का तत्काल विनाश कहा गया है, तथा द्वेष करने वाले को दुःखपरम्परा का जन्मदाता कहा गया है, यथा I रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । उत्तरा . 32.24 जे याविदो समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । उत्तरा . 32.25 जो रूप में तीव्र गृद्धि (आसक्ति) करता है वह अकाल ही विनाश को प्राप्त करता है और जो तीव्र द्वेष करता है वह उसी क्षण दुःख प्राप्त करता है। यहाँ पर

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