Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 438
________________ 420 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन विचार किया जा रहा है। जैनदर्शन में 'वीतराग' शब्द का प्रयोग राग-द्वेषादि से रहित साधक के लिए किया जाता है। यह वीतरागता ग्यारहवें (उपशान्तमोहनीय) गुणस्थान से लेकर चौदहवें (अयोगिकेवली) गुणस्थान तक प्रकट होती है। इनमें ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान की वीतरागता मोहकर्म के उपशम होने से प्रकट होती है। उपशान्तमोह गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता अस्थायी होती है, क्योंकि इस गुणस्थान का साधक पुनः सराग हो जाता है, किन्तु बारहवें क्षीण-मोहनीय गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता सदा के लिए हो जाती है। तब साधक मोहकर्म से पूर्णतः रहित हो जाता है। ऐसी वीतरागता सम्पन्न साधक ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म का भी क्षय कर अरिहन्त बन जाता है तथा अंत में चार अघाति कर्मों (वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र) का भी क्षय कर सिद्ध बन जाता है। ___ मोहकर्म से राग-द्वेष का गहरा सम्बन्ध है। यद्यपि राग-द्वेष का मोहकर्म के भेदों में सीधा उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु क्रोध, मान, माया एवं लोभ को राग-द्वेष के रूप में विभक्त किया जाता है। यह तय है कि जब तक मोह का उदय होता है, तब तक राग-द्वेष भी सत्ता पाते रहते हैं और मोहकर्म का नाश होते ही राग-द्वेष का भी नाश हो जाता है। जिसके राग, द्वेष एवं मोह का नाश हो जाता है, उसे ही वीतराग कहा जाता है। 'वीतराग' शब्द में स्थित 'राग' शब्द से द्वेष एवं मोह आदि विकारों का भी उपलक्षण से ग्रहण हो जाता है। अर्थात् जो वीतराग होता है वह वीतद्वेष एवं वीतमोह भी होता है। व्याकरण-शास्त्र की दृष्टि से 'वीतराग' शब्द में बहुव्रीहि समास है। संस्कृत में समास-विग्रह होगा- 'वीत: अपगतः रागः यस्मात् स वीतरागः' अथवा 'वीतः नष्टः रागः यस्यासौवीतरागः' अर्थात जिसका राग नष्ट हो गया है वह वीतराग है। 'उत्तराध्ययनसूत्र में वीतराग उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन ‘अप्रमाद स्थान' में वीतराग के स्वरूप का सरल, किन्तु सारगर्भित निरूपण हुआ है । वहाँ पाँच इन्द्रियों एवं एक मन के विषयों के प्रिय होने पर जो उनमें राग नहीं करता तथा उनके अप्रिय होने पर द्वेष नहीं करता, अपितु सम रहता है उसे वीतराग कहा गया है, यथा

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