Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 437
________________ वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण जो रागादि दोषों से रहित होता है उसे वीतराग कहा जाता है। जो वीतरागता की साधना करता है तथा कुछ क्षणों के लिए भी समता का अनुभव करता है वह भी कथञ्चिद् वीतराग है। मनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों के उपस्थित होने पर भी जो उनमें राग नहीं करता तथा अमनोज्ञ विषयों के उपस्थित होने पर उनके प्रति द्वेष नहीं करता वह समता में जीने वाला साधक वीतरागता के पथ का पथिक होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के 32वें अध्ययन में ऐसी वीतरागता का निरूपण हुआ है। भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में राग, भय एवं क्रोध को जीतने वाले साधक को स्थितप्रज्ञ कहा गया है । वह दुःखों में उद्विग्न नहीं होता तथा विषय-सुखों का अभिलाषी नहीं होता। कामनाओं का त्याग कर स्वयं में प्रसन्न रहता है। इस प्रकार वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ इन दो अवधारणाओं में प्रचुर साम्य प्रतीत होता है। श्रमण एवं वैदिक संस्कृति में कई विचारों को लेकर साम्य दिखाई देता है, जिसका एक निदर्शन है यह वीतराग और स्थितप्रज्ञ से सम्बद्ध आलेख। 'उत्तराध्ययन' जैनदर्शन का प्रमुख आगम ग्रन्थ है तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' वैदिकदर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्था दोनो ग्रन्थों में आध्यात्मिक संस्कृति एवं साधना का प्रतिपादन है। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' प्राकृत में निबद्ध है एवं 'श्रीमद्भगवद्गीता' संस्कृत में विरचित। एक निवृत्तिप्रधान है, दूसरा प्रवृत्तिप्रधान। गीता में कृष्ण अर्जुन को युद्ध करते रहने की शिक्षा देते हैं, उत्तराध्ययन में अपने आप से युद्ध करने के लिए कहा गया है। गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का विधान है, उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना वर्णित है। दोनों ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के होते हुए भी, उनमें अनेक स्थानों पर साम्य है। गीता में जिस प्रकार आत्मा को अज, नित्य, शाश्वत, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य आदि कहा गया है उसी प्रकार उत्तराध्ययन में भी आत्मा की अविनश्वरता स्वीकार की गयी है एवं उसे इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य बतलाया गया है। गीता में पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जिस प्रकार स्वीकार किया गया है, उत्तराध्ययन में भी उसे उसी प्रकार स्थापित किया गया है। प्रस्तुत लेख में उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित वीतराग एवं भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के स्वरूप में गर्भित साम्य एवं भेद का किञ्चित्

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