Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 439
________________ 421 राग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। उत्तरा . 32.22 सोयस्स सद्दं गहणं वयंति, तं रागहेडं तुमणुन्नमाहु । तं दोस अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। उत्तरा . 32.35 घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। उत्तरा 32.48 जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तुमणुन्नमाहु । तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। उत्तरा . 32.61 कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। उत्तरा . 32.74 मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । दोस अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स तु वीयरागो ।। उत्तरा 32.87 अर्थात् नेत्रों का विषय रूप है, मनोज्ञ ( प्रिय) रूप राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ( 32.22), कानों का विषय शब्द है, मनोज्ञ ( प्रिय) शब्द राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय ) शब्द द्वेष का कारण होता है; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ( 32.35), नासिका का विषय गंध है, मनोज्ञ ( प्रिय) गंध राग का कारण होती है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय ) गंध द्वेष कारण होती है; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ( 32.48), जीभ का विषय रस है, मनोज्ञ ( प्रिय) रस राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रस द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ( 32.61), काया का विषय स्पर्शन है, मनोज्ञ (प्रिय) स्पर्श राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय ) रस द्वेष कारण होता है; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ( 32.74), मन का विषय भाव (विचारादि) है, प्रिय भाव राग का कारण होता है तथा अप्रिय भाव द्वेष का कारण होता है, जो इनमें सम रहता है; वह वीतराग है । ( 32.87) उपर्युक्त गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वीतराग समता की प्रतिमूर्ति होता है। वह सुखद - प्रतीत होने वाले विषयों, भोगों एवं कामवासनाओं के प्रति न राग करता है और न दुःखद प्रतीत होने वाले विषयों, भोगों एवं संकल्पों के

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