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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना
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समय में संकोच किया जाता है (कारिका 275) । समुद्घात के पश्चात् योग-निरोध की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। सबसे पहले मनोयोग का निरोध किया जाता है, फिर क्रमशः वचनयोग और काययोग का निरोध किया जाता है (कारिका 277-279) । काययोग का निरोध करते समय शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति और व्युपरतक्रिय नामक ध्यान को ध्याता है। यह ध्यान की अन्तिम अवस्था है (कारिका 280)। इसके बाद अयोग अवस्था आ जाती है (कारिका 282)। इसे कर्मसिद्धान्त में चौदहवाँ गुणस्थान कहा गया है। इसे शैलेशी अवस्था भी कहा गया है। यह अवस्था पाँच ईषद् ह्रस्वाक्षरों को उच्चारित करने जितने समय तक के लिए होती है (कारिका 283)। इस अवस्था में ही वह केवली अवशिष्ट कर्मों का एक साथ क्षय कर देता है । इसके साथ ही औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों से मुक्त होकर ऋजु श्रेणि से अस्पृशद् गति द्वारा एक समय में ही ऊर्ध्व लोक में अवस्थित हो जाता है। यहाँ वह सादि, अनन्त, अनुपम और अव्याबाध उत्तम सुख को प्राप्त होते हुए केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वरूप होकर रहता है (कारिका, 289)
लोकस्वरूप- प्रशमरतिप्रकरण में लोक का बाह्य स्वरूप भी निरूपित हुआ है। इसमें लोक को ऐसे खड़े हुए पुरुष के आकार का प्रतिपादित किया गया है, जिसके दोनों पैर फैले हुए हों तथा कटिभाग पर दोनों ओर हाथ रखे हुए हों। लोक को जैन दर्शन षड्द्रव्यात्मक स्वीकार करता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल
और जीव ये षड़ द्रव्य हैं। वह लोक अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के रूप में तीन भागों में विभक्त है। अधोलोक उलटे सकोरे के समान आकार का होता है। तिर्यक्लोक को अनेक प्रकार का तथा ऊर्ध्वलोक को पन्द्रह प्रकार का बताया गया है। रत्नप्रभा आदि सात नरक ही सप्तविध अधोलोक हैं। तिर्यक्लोक जम्बूद्वीप आदि के भेद से अनेक प्रकार का तथा ऊर्ध्वलोक में सौधर्मादि के दशकल्प, ग्रैवेयक के तीन, महाविमान का एक तथा ईषत्प्राग्भार का एक, इस प्रकार 15 प्रकार का लोक है।
आत्मा के आठ प्रकार - आत्मा को द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग,ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य की मार्गणा के आधार पर आठ प्रकार का कहा गया है । जीव की