Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 422
________________ 404 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन पुद्गलकर्मशुभंयत्तत्पुण्यमितिजिनशासने दृष्टम्।। यदशुभमथतत्यापमितिभवति सर्वज्ञनिर्दिष्टिम्।-प्रशमरतिप्रकरण,219 शुभ आसव पुण्य का एवं अशुभ आस्रव पाप का हेतु होता है। यही बात प्रशमरतिप्रकरण में स्पष्ट की गई है कि शुभ कर्मपुद्गल को पुण्य तथा अशुभ कर्मपुद्गल को जिन शासन में पाप कहा गया है। अध्याय-7 (i) मूर्छा परिग्रहः ।- तत्त्वार्थसूत्र, 7.12 ____ अध्यात्मविदो मूछो परिग्रहं वर्णयन्तिनिश्चयतः।-प्रशमरतिप्रकरण, 178 मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। अध्यात्मवेत्ता मूर्छा को परिग्रह के रूप में वर्णित करते हैं। (ii) हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । तत्त्वार्थसूत्र, 7.1 अणुव्रतोऽगारी।- तत्त्वार्थसूत्र, 7.15 दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।- तत्त्वार्थसूत्र, 7.16 स्थूलवधानृतचौर्यपरस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम् । दिग्व्रतमिह देशावकाशिकमनर्थविरतिंच । सामायिकंचकृत्वापौषधमुपभोगपारिमाण्यं च । न्यायागतंचकल्प्यंविधिना पात्रेषु विनियोज्यम्।। - प्रशमरति, 303-304 श्रावक के 12 व्रतों का तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरतिप्रकरण में समान क्रम है। उपासकदशाङ्ग सूत्र में देशावकाशिक को सामायिक के पश्चात् एवं उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत को दिग्वत के पश्चात् रखा गया है। इस दृष्टि से उमास्वाति ने आगम निरूपित क्रम में अपनी सूझ से परिवर्तन किया है। अध्याय-8 () आद्योज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः । - तत्त्वार्थसूत्र, 8.5 सज्ज्ञानदर्शनावरणवेद्यमोहायुषांतथानाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेतिकर्मबन्धोऽष्टधामौलः।-प्रशमरतिप्रकरण, 34

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