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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
तपसमाधि से युक्त साधक सदैव तप के द्वारा प्राचीन (पूर्वबद्ध) पापकर्मों को नष्ट करता है।
___ संवरेणंकायगुत्तेपुणोपावासवनिरोहं करेइ। - उत्तराध्ययनसूत्र, 29.55 संवर से कायगुप्ति कर जीव पुनः पापानव का निरोध करता है।
(iv) आत्मा के शुभ परिणामों के कारण योग 'शुभ' एवं अशुभ परिणामों के कारण योग ‘अशुभ' होता है (शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः ।अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । - सर्वार्थसिद्धि 6.3) कमों के शुभाशुभत्व का कारण होने से योग शुभाशुभ नहीं होते। यदि ऐसा कहा जाए तो शुभ योग होगा ही नहीं, क्योंकि शुभ योग को भी ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्ध का कारण माना गया है । (न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात् । शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् ।- सर्वार्थसिद्धि 6.3) जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य है (पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्- सर्वार्थसिद्धि 6.3) तथा जो पुण्य का विरोधी है वह पाप है । इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि संक्लेश पाप है एवं विशुद्धि पुण्य है । संक्लेश में कषायवृद्धि होती है तथा विशुद्धि में कषाय-कमी। इस प्रकार पुण्य-पाप को समान समझना उपयुक्त नहीं।
(v) कसायपाहुड की जयधवला टीका में अनुकम्पा एवं शुद्ध उपयोग को पुण्यासव का हेतु तथा इसके विपरीत निर्दयता एवं अशुद्ध उपयोग को पापासव का हेतु बताया गया है
पुण्णासवभूदाअणुकंपासुद्धओअ उपजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहि ॥
- कसायपाहुड, जयधवला टीका, पुस्तक 1, पृष्ठ 96 यहाँ ज्ञात होता है कि पुण्यासव एवं पापासव एक दूसरे के विपरीत हैं, अतः दोनों का पृथक् कथन आवश्यक है।
(vi) पुण्य-पाप का समावेश आसव एवं बन्ध तत्त्व में करने का परिणाम यह हुआ कि पुण्य को भी पाप की ही भांति मुक्ति में बाधक मानकर आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा पाप को लोहे की बेड़ी तथा पुण्य को सोने की बेड़ी कहा गया, जो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जो पुण्य केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक न होकर साधक