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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
(4)नय, प्रमाणऔर अनुयोग- जैन ज्ञान-मीमांसा में अधिगम के लिए नय, प्रमाण एवं अनुयोग को सहायक माना गया है । प्रशमरतिप्रकरण में 'अनेकानुयोगनयप्रमाणमार्गः समनुगम्यम्' (229) कारिकांश के द्वारा अनेक अनुयोग, नय एवं प्रमाण मार्ग से अधिगम करने के कथन से इसकी पुष्टि होती है। तत्त्वार्थसूत्र (1.6) में 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र के द्वारा प्रमाण एवं नय से अधिगम सम्पन्न होने का कथन करके विभिन्न अनुयोगों का निर्देश इन तीनों सूत्रों में पृथकूपेण किया गया है।
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः तत्त्वार्थसूत्र, 1.5 निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ।
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।-तत्त्वार्थसूत्र, 1.7-8 तत्त्वार्थभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव को स्पष्टरूपेण अनुयोगद्वार कहा गया है- 'एभिर्नामादिभिश्चतुर्भिरनुयोगद्वारैः (तत्त्वार्थभाष्य 1.5) इसी प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान भी भाष्य के अनुसार अनुयोगद्वार हैं, (एभिश्च निर्देशादिभिः षभिरनुयोगद्वारैः- तत्त्वार्थभाष्य 1.7) और सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व भी अनुयोगद्वार हैं (सद्भूतपदप्ररूपणादिरष्टाभिरनुयोगद्वारैः सर्वभावानाम्- तत्त्वार्थसूत्र, 1.8) इस प्रकार अधिगम में नय एवं प्रमाण के साथ अनुयोगद्वारों का भी महत्त्व स्वीकार किया गया है। नियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति गाथा 13 एवं 895) एवं षट्खण्डागम में भी इन अनुयोगद्वारों की चर्चा उपलब्ध होती है । अनुयोगों के माध्यम से किसी एक विषय का ज्ञान सम्यक् रीति से हो सकता है । प्रशमरतिप्रकरण की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में अनुयोग-द्वारों का कथन व्यवस्थित रूप में हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्र प्रशमरतिप्रकरण के पश्चाविरचित है। __यहाँ इस तथ्य पर भी विशेष ध्यान आकर्षित करना होगा कि नय एवं अनुयोग का प्रत्यय जैन दर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है एवं चिन्तन के क्षेत्र में भारतीयदर्शन को उसका यह अमूल्य योगदान है । ज्ञानमीमांसा के सम्बन्ध में प्रमाण के अतिरिक्त नय एवं अनुयोग भी अपनी महत्त्वपूर्ण उपयोगिता रखते हैं।