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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना
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में काल का कथन करने पर काल में कायत्व स्वीकारना पड़ता जो कि काल में है नहीं।-(सर्वार्थसिद्धि, पृ. 239) इसी प्रकार 'आऽऽकाशादेकद्रव्याणि' (5.5) निष्क्रियाणि च (5.6) सूत्रों में परिगणित धर्म, अधर्म एवं आकाश के अतिरिक्त शेष द्रव्य पुद्गल एवं जीव सक्रिय हैं, यदि काल की गणना पहले हो जाती तो उनके साथ 'काल' भी सक्रिय हो जाता, जो अभीष्ट नहीं है।
उपर्युक्त दोनों बिन्दुओं से यह सिद्ध होता है कि उमास्वाति को काल पृथक् द्रव्य के रूप में अभीष्ट था।
(ग) पं. दलसुख मालवणिया का इस सम्बन्ध में भिन्न मत है । वे लिखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत में लोक पंचास्तिकायमय है। उत्तराध्ययनसूत्र 28.7 के अतिरिक्त लोक को षड्द्रव्यात्मक नहीं बताया गया है । (आगमयुग का जैन दर्शन, प.214) मालवणिया जी का यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि उस समय पाँच द्रव्य मानने की भी परम्परा रही है तथा उमास्वाति काल को पृथक् द्रव्य मानने के पक्षपाती नहीं थे। पं. मालवणिया जी के इस कथन पर प्रश्न तब उठता है जब व्याख्याप्रज्ञप्ति (शतक 25, उद्देशक 4, सूत्र 8) एवं अनुयोगद्वारसूत्र (सूत्र 269) में स्पष्टतः षद्रव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है तथा उमास्वाति ने स्वयं प्रशमरतिप्रकरण में 'काल' को अजीव पदार्थों में परिगणित किया है । प्रशमरतिप्रकरण में उन्होंने पुद्गल को रूपी तथा धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल को अरूपी द्रव्य कहा है, यथा
धर्माधर्माकाशानिपुद्गला: काल एवंचाजीवाः ।
पुद्गलवर्जमरूपं तुरूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः। प्रशमरतिप्रकरण, 207 इसका तात्पर्य है कि उमास्वाति को काल पृथक् द्रव्य के रूप में अभीष्ट था, किन्तु वे इसके सम्बन्ध में रहे मतभेद को प्रकट करना चाहते थे।
(3) बन्ध हेतु- कर्म-बन्धन के तत्त्वार्थसूत्र में पाँच हेतु गिनाए गए हैंमिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । प्रशमरतिप्रकरण में राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं योग को कर्मबन्ध का हेतु बताया गया है। आगम में मिथ्यात्व आदि को आसव का हेतु तथा राग-द्वेष को बन्ध का कारण बताया गया है।