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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना
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क्योंकि कर्म पुद्गलों के आसव के अनन्तर बन्ध ही घटित होता है तथा संवर एवं निर्जरा के द्वारा मोक्ष घटित होता है।
(घ)पुण्य-पापका समावेशआस्रवएवंबन्ध में करके उन्हें स्वतन्त्रतत्त्वके रूप मेंनिरूपित नहीं करनाअनेक कारणों से उचित प्रतीत नहीं होता, यथा
(i) पुण्य-पाप एक-दूसरे के विरोधी हैं । पुण्यकर्म जहाँ सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में सहायक कारण है वहाँ पापकर्म उसमें बाधक है । कर्मसिद्धान्त के अनुसार जब तक पापकर्म की प्रकृतियों का चतुःस्थानिक अनुभाग घटकर द्विस्थानिक नहीं होता और पुण्यप्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतुःस्थानिक नहीं होता तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है । इसी प्रकार पुण्यप्रकृतियों का अनुभाग जब तक उत्कृष्ट नहीं होता तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता है। इस दृष्टि से पाप के अनुभाग का घटना एवं पुण्य के अनुभाग का बढ़ना सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में सहायक होने से ये एक-दूसरे के विरोधी सिद्ध होते हैं । अतः इन दोनों का पृथक् कथन आगम एवं कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से अपेक्षित प्रतीत होता है।
(ii) आठ कर्मों में से चार घाती कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय- पापकर्म हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति हेतु इनका क्षय अनिवार्य होता है । पुण्य कर्मों के क्षय के लिए विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती। पुण्य कर्म अघाती हैं, जो आत्मा की कोई घात नहीं करते । वे देशघाती भी नहीं हैं। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्रसंस्थान आदि पुण्य कर्म तो मुक्ति में सहायक माने गये हैं। इसलिए पुण्य एवं पाप दोनों का पृथक् बोध आवश्यक होने से इन्हें तत्त्वगणना में पृथक् रूपेण स्थान देना उचित प्रतीत होता है।
(iii) आगमों में सर्वत्र पाप के त्याग का ही विधान है तथा पाप-प्रकृतियों के क्षय का ही निरूपण है। पुण्य त्याग या उसका क्षय करने की प्रेरणा कहीं नहीं की गई है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंतवसाधुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तोसया तवसमाहिए।
-दशवैकालिकसूत्र, 9.4.4