Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 420
________________ 402 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन (ii) लोकाकाशेऽवगाहः । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.12 धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । - तत्त्वार्थसूत्र 5.13 असंख्येयभागादिषुजीवानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.15 लोकालोकव्यापकमाकाशंमर्त्यलोकिकः कालः । लोकव्यापिचतुष्टयमवशेषत्वेकजीवोवा।। -प्रशमरतिप्रकरण, 213 आकाश लोक एवं अलोक में रहता है, काल मनुष्य लोक में रहता है, शेष चार द्रव्य लोकव्यापी हैं, एक जीव के प्रदेश भी लोकव्यापी कहे गए हैं । तत्त्वार्थसूत्र में धर्म एवं अधर्म द्रव्य को सम्पूर्ण लोक में व्याप्त कहा गया है तथा लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक जीवों का अवगाहन कहा है। (iii) आऽऽकाशादेकद्रव्याणि । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.5 निष्क्रियाणिच । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.6 धर्माधर्माकाशान्येकैकमतः परंत्रिकमनन्तम् । कालं विनाऽस्तिकायाजीवमृते चाऽप्यकर्तृणि ।।-प्रशमरतिप्रकरण, 214 धर्म, अधर्म एवं आकाश संख्या में एक-एक हैं तथा निष्क्रिय हैं । यह कथन दोनों ग्रन्थों में समानरूप से हुआ है। किन्तु प्रशमरतिप्रकरण में शेष तीन द्रव्यों पुद्गल, जीव और काल को अनन्त प्रतिपादित करते हुए काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है तथा छह द्रव्यों में से 'जीव' को छोड़कर शेष पाँच को अकर्ता माना गया है। (iv) गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः।- तत्त्वार्थसूत्र, 5.17 आकाशस्यावगाहः। - तत्त्वार्थसूत्र, 5.18 धर्मो गतिस्थितिमतांद्रव्याणांगत्युपग्रहविधाता। स्थित्युपकृच्चाधर्मोऽवकाशदानोपकृद्गगनम् ।।-प्रशमरतिप्रकरण, 215 उपर्युक्त दोनों कथनों में पूर्ण समानता है, जिनके अनुसार धर्म को गति में, अधर्म को स्थिति एवं आकाश को अवगाहन में उपकारक प्रतिपादित किया गया है। (v) स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ।- तत्त्वार्थसूत्र, 5.23 शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतश्छायातपोद्योतवन्तश्च । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.24

Loading...

Page Navigation
1 ... 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508