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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना
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यहाँ पर ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का क्रम से दोनों ग्रन्थों में कथन किया गया है। (ii) पंचनवद्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदाः यथाक्रमम्।
- तत्त्वार्थसूत्र, 8.6 पंचनवद्यष्टाविंशतिकश्चतुःषट्कसप्तगुणभेदः।
द्विपंचभेदइतिसप्तनवतिभेदास्तथोत्तरतः।- प्रशमरतिप्रकरण, 35 ज्ञानावरणादि कर्मों की क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठावीस, चार, बयालीस, दो एवं पाँच प्रकृतियाँ हैं। (iii) प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः।- तत्त्वार्थसूत्र, 8.4
प्रकृतिरियमनेकविधास्थित्यनुभागप्रदेशतस्तस्याः।-प्रशमरति, 36 चार प्रकार के बन्ध हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाव/अनुभाग एवं प्रदेश। अध्याय-9 (i) उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्य
ब्रह्मचर्याणि धर्मः। - तत्त्वार्थसूत्र, 9.6 सेव्यः क्षान्तिर्दिवमार्जवशौचेचसंयमत्यागौ।
सत्यतपोब्रह्माकिंचन्यानीत्येष धर्मविधिः ।।- प्रशमरतिप्रकरण, 167 सत्य, तप और ब्रह्मचर्य के क्रम में भेद के अतिरिक्त क्षमा आदि दशविध धर्मों का समान कथन हुआ है। (ii) अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वानवसंवरनिर्जरालोक
बोधिदुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । - तत्त्वार्थसूत्र, 9.7 भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वंतथैकतान्यत्वे । अशुचित्वंसंसारः कर्मास्रवसंवरविधिश्च ।। निर्जरणलोकविस्तरधर्मस्वाख्यातत्त्वचिन्ताश्च ।
बोधेः सुदुर्लभत्वंचभावनाद्वादश विशुद्धाः -प्रशमरितप्रकरण, 140-150 संसार एवं बोधिदुर्लभ भावनाओं के क्रमभेद के अतिरिक्त अनित्यादि बारह भावनाओं का दोनों ग्रन्थों में समान कथन हुआ है।
(iii) सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रम् ।-तत्त्वार्थसूत्र, 9.18