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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
इनमें तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' का भाव साम्य है तो 'तन्निसर्गादधिगमाद्वा' अंश तो पूर्णतः शब्दशः ज्यों का त्यों उभयत्र प्राप्त है। (i) सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । - तत्त्वार्थसूत्र, 1.30
कााल्लोकालोकेव्यतीतसाम्प्रतभविष्यतः कालान् ।
द्रव्यगुणपर्यायाणांज्ञाता द्रष्टाचसर्वाथैः ॥ - प्रशमरतिप्रकरण, 270 प्रशमरतिप्रकरण में जहाँ केवलज्ञानी को लोक एवं अलोक के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य काल के समस्त द्रव्य, गुण एवं पर्यायों का ज्ञाता-द्रष्टा कहा गया है वहाँ तत्त्वार्थसूत्र में उसे सूत्र शैली में समस्त द्रव्य एवं पर्यायों का ज्ञाता कहा गया है।
(iv) एक जीव में एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं, इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरतिप्रकरण में उमास्वाति मिलती-जुलती शब्दावली में कहते हैं कि एक जीव में एक से लेकर चार ज्ञान तक पाये जा सकते हैं
एकादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः । - तत्त्वार्थसूत्र, 1.31
एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानित्वाचतुर्थ्यः ॥ - प्रशमरतिप्रकरण, 226 (v) मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च । - तत्त्वार्थसूत्र, 1.32
आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम्। - प्रशमरतिप्रकरण, 227 इन दोनों पंक्तियों में भावसाम्य है । 'आयत्रयज्ञान' शब्द मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान का ही द्योतक है तथा ये तीनों ज्ञान मिथ्यात्व से युक्त होने पर विपर्यय को प्राप्त होते हैं। अध्याय-2 (i) औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्चजीवस्य
स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। -तत्त्वार्थसूत्र, 2.1 द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः यथाक्रमम् । तत्त्वार्थसूत्र, 2.2 भावाः भवन्ति जीवस्यौदयिकः पारिणामिकश्चैव।
औपशमिकः क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्चपंचैते ॥ तेचैकविंशतित्रिद्विनवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः। -प्रशमरति, 196-197 तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त दो सूत्रों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक (मिश्र), औदयिक और पारिणामिक भावों के नामों एवं उनके भेदों का उल्लेख है ।