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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 4, पृ. 267 ) । इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों जैन परम्पराएँ एकमत से तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति को ही प्रशमरतिप्रकरण का कर्त्ता अङ्गीकार करती हैं, किन्तु इस मन्तव्य की पुष्टि में पं. सुखलाल संघवी के अतिरिक्त किसी ने कोई प्रमाण उपस्थापित नहीं किया है। पं. सुखलाल संघवी ने उल्लेख किया है कि हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थभाष्य टीका में "यथोक्तमनेनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे" वाक्य लिखकर प्रशमरतिप्रकरण की 210 वीं एवं 211 वीं कारिकाएँ उद्धृत की हैं ( तत्त्वार्थसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 29, पादटिप्पण 1 ) । इससे तत्त्वार्थभाष्यकार एवं प्रशमरतिकार के एक ही होने की पुष्टि होती है ।
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प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही रचना है, इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमाण अज्ञातकर्तृक अवचूरि में प्राप्त होता है, जिसमें 500 प्रकरणों के प्रणेता वाचक उमास्वाति को ही प्रशमरतिप्रकरण का कर्त्ता स्वीकार किया गया है, यथा - " श्री उमास्वातिवाचकः पंघशतप्रकरणप्रणेता प्रशमरतिप्रकरणं प्ररूपयन्नादौ मंगलमाह । " "- ( प्रशमरतिप्रकरण, अगास, परिशिष्ट 1 ) इस कथन से भी प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही कृति सिद्ध होती है। टीकाकार हरिभद्र ने प्रशमरतिप्रकरण के कर्त्ता के लिए 'वाचकमुख्य' शब्द का प्रयोग किया है - " तस्मै वाचकमुख्याय नमो भूतार्थभाषिणे " जो उमास्वाति का ही संसूचन करता है । अभी तक ऐसा कोई लेख देखने में नहीं आया जिसमें प्रशमरतिप्रकरण के उमास्वातिकृत होने का खण्डन किया गया हो । अतः इसका उमास्वातिकृत होना निर्विवाद है । इस सन्दर्भ में यह कहना उपयुक्त होगा कि प्रशमरति एवं तत्त्वार्थसूत्र की आन्तरिक विषयवस्तु एवं प्रयुक्त शब्दावली में जो साम्य एवं एकरूपत्व प्राप्त होता है उससे तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरति के एक कर्तृकत्व की सिद्धि को बल मिलता । इन दोनों ग्रन्थों में कितना साम्य है, इसकी चर्चा आगे की जायेगी।
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प्रशमरतिप्रकरण की अभी दो टीकाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें एक टीका आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित है। ये हरिभद्र 'षड्दर्शनसमुच्चय' के रचयिता आठवीं शती के प्रसिद्ध हरिभद्रसूरि (700-770 ई.) से पृथक् हैं। टीका के अन्त में प्राप्त प्रशस्ति के अनुसार वह टीका अणहिलपाटक नगर में हरिभद्राचार्य के द्वारा जयसिंहदेव के